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बाल श्रमिकों की समस्याएँ

बाल श्रमिकों की समस्याएँ

बाल श्रमिक सामान्य रूप से शारीरिक, शैक्षणिक तथा बौद्धिक दृष्टिकोण से प्रभावित (अथवा पीड़ित) होते हैं, जब बच्चे किसी भी प्रारंभिक आयु से ही खतरनाक कामों में लग जाते हैं तो वास्तविक अर्थों में शिक्षा प्राप्त करने अथवा कामवाली मेघा की विकास करने के अवसर उनके लिए सिकुड़ से जाते हैं। वे बुरी तरह अपंग हो जाते हैं, वे अच्छे रोजगार प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं, वे अधिक वेतन तथा अधिक दक्षता प्राप्त नहीं कर पाते और इस प्रकार सामाजिक प्रगति की किसी भी आशा का गला घोंट दिया जाता है। ‘बच्चे काम के मोर्चे पर’ शीर्षक के अंतर्गत आई.एल.ओ. द्वारा कराए गए एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि ‘इसकी भारी संभावनाएं विद्यमान हैं कि अपनी प्रारंभिक आयु में ही काम पर जुट जाने वाली पीढ़ी जो सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर यह कर ही अपना जीवन व्यतीत करेगी, वह नियमित रूप से अकुशल रोजगार में लगी रहेगी और इस प्रकार मजबूरी कभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ेगी। यह प्रमाणित हो चूका है कि बाल मजदूरी की संवृत्ति विकासशील देशों में रोजगार की स्थिति पर गंभीर दुष्प्रभाव डालती है। यह वेतनों में कमी लाती है और बाल श्रमिकों को अत्यंत असुरक्षित रोजगार की स्थिति में बनाये रखती है। प्रायः बाल श्रमिकों को रोजगार का परिणाम बालिगों की बेरोजगारी के रूप में निकलना है।”

पूर्ण रूप से सही आंकड़ों के आभाव में केवल निम्नलिखित सम्भावित समस्याओं की सूची बनाई जा सकी है।

ख़राब कामकाजी स्थितियां: नियोजक का मकसद अधिक लाभ अर्जित करने की लालसा में बाल श्रमिकों को प्राथमिकता देता है, उसे बच्चों की कामकाजी स्थितियों को सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। यहाँ तक कि वे कारखाना अधिनियम में वर्णित न्यूनतम प्रावधानों का भी उल्लंघन करते रहते हैं।

दुर्घटना का खतरा : बाल श्रमिक लम्बे समय तक लगातार एक जैसा काम करते रहते हैं। उन्हें बहुत कम समय मिलता है। इसलिए वे अधिक संख्या में दुर्घटना का शिकार होते हैं।

रसायन एवं भारी मशीनरी: ये मशीनें वयस्क श्रमिकों के काम करने के लिए होती है, बच्चों के लिए नहीं। बच्चों के लिए बोझा उठाने की क्षमता निर्धारित नहीं की गई। उनके विशेष विषाक्त्त तथा रसायनों जैसे सीसा तथा सिंथेटिक बुरादा इत्यादि के प्रभावों से रुग्न होने की आशंका ज्यादा होती है।

प्रगति तथा पोषण दर्जा इनसे प्रभावित होता है:

घोर दरिद्रता और उसके साथ अर्ध पोषण एक ऐसा विषैला कुचक्र बन जाता है जिससे वे पीड़ित होते ही रहते हैं। कम आयु में काम करने से बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। वे कुपोषण के जाल में फँस जाते हैं। साथ ही कम मजदूरी मिलने पर भी बच्चे अधिक समय तक काम करने पर मजबूर जाते हैं क्योंकि अधिकतर काम पीस रेट पर होता है।

मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समस्याएँ

  • बच्चे भावुक होते होते हैं। ऐसे समय में जब उनका मन कल्पना की उड़ानें भरने को मचल रहा हो उन्हें कठोर नियत्रण और शोषण का सामना करना पड़ता है।
  • बचपन में सामाजिक जीवन मनबहलाव की सुविधाओं के आभाव भावात्मक तथा सामाजिक बोध का विकास बहुत कम होता है।
  • बचपन समाप्त होते ही नौकरी से निकाल बाहर करने के सम्भावनाएं विद्यमान रहती है। दुर्भाग्यवश स्वास्थ्य तथा मजदूरी से सम्बन्धित कुछ मूल प्रश्नों के उत्तर अभी तक हम दे नहीं पाए हैं। कामकाजी बच्चे जब बालिग होंगें तो उनका क्या होगा? वे अपने परिवार, समाज तथा नये रोजगार में स्वयं को समायोजित कैसे कर पायेंगें? अथवा स्वास्थ्य की दृष्टि से उनकी स्थिति कैसी होगी? इन बाल श्रमिकों का जीवन काल कितना लम्बा होगा? एक बाल श्रमिक जब बड़ा होकर बरोजगार हो जाता है तो वह बाल मजदूरी के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाएगा। अभी तक बाल मजदूरी प्रथा के दीर्घकालिक प्रभावों पर अध्ययन कम हुए हैं लेकिन विश्वभर के अनुभवों से यह साफ है कि कच्ची उम्र में काम करने का बच्चों पर विपरीत असर होता है।

असंगठित क्षेत्र की राजनैतिक अर्थव्यवस्था

बाल श्रम के बारे में दूसरा सिद्धांत असंगठित क्षेत्र के स्वरुप और कार्यशैली से सम्बन्धित हैं। प्रायः विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था का विवेचन करने के लिए एक दुहरे सिद्धांत का आसरा लिया जाता है जिसके दोनों अंग परस्पर समानांतर हैं और वे हैं- परम्परागत क्षेत्र और आधुनिक क्षेत्र। अक्सर विकास के लिए उपयोगी साधन के रूप में आधुनिक क्षेत्र की ताईद की जाती है, परम्परागत क्षेत्र की नहीं बल्कि उन दोनों को एक-दूसरे के विरूद्ध ही बताया जाता है, क्योंकि परंपरागत क्षेत्र में जनसंख्या की अधिकता, श्रम शक्ति की बहुतायत और पिछड़ी तकनीक का उपयोग होत्ता है इसलिए उसे आधुनिक क्षेत्र के लिए विध्न ही मानते हैं। ‘जिन लोगों को पैसा वाला काम नहीं मिलता है वे सब उस नये क्षेत्र में दाखिल होते हैं जहाँ भीख मांगकर, फेरी लगाकर या छोटी-मोटी चोरी-चपाटी करके दो वक्त की रोटी जूटा लेते हैं।”

सार यह है कि यह परम्परागत अनौपचारिक क्षेत्र आर्थिक समवृद्धि की दृष्टि से अनुपयोगी माना जाता है क्योंकि उससे न आर्थिक सेवा होती है, न आर्थिक वस्तुएँ तैयार होती हैं। (वही 503-508) आव्रजन का भी कारण इसी को बताया जाता है क्योंकि बाहर जाकर जो भी (कम ही सही) आय कर लेते हैं वह देहात में रहकर होने वाली आय से कुछ ज्यादा ही होती है। इसलिए लोग गाँव छोड़कर बाहर जाते हैं। ये हैं असंगठित क्षेत्र के ‘खिंचाव’  के बारे में दी जाने वाली दलीलें। फिर भी अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के केन्या अध्ययन से स्पष्ट है कि इसी क्षेत्र को दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। चूंकि उसके कार्य-कलाप छोटे पैमाने के हैं, वे घर-घर में चल सकते हैं वे घर के अपने उद्योग बन सकते हैं और उनमें दाखिल होना आसान है इन्हीं कारणों से समूची अर्थव्यवस्था में समवृद्धि लाने में वह क्षेत्र ज्यादा सक्षम है, साथ ही इन्हीं कारणों से, यानी यह क्षेत्र स्थानीय संसाधनों और तकनीकों पर निर्भर है, इसलिए बहुत बड़ी मात्रा में श्रम शक्ति को काम में लाने की क्षमता भी उसमें है (अं,श्र.सं. केन्या रिपोर्ट, 197२:503-506) कहने का सार यह है कि यह असंगठित क्षेत्र अनुपयोगी और इक्का-दुक्का तो नहीं ही है, बल्कि वास्तव में औपचारिक क्षेत्र की नाना प्रकार की सेवाएं और वस्तुएँ मुहैया करने वाला महत्वपूर्ण क्षेत्र है।। जैसे मरम्मत. देखरेख, सस्ता यातायात, घरेलू सेवाएं, औद्योगिक तथा अन्य कचरे का पुनः काम में लाना, तैयार माल, हस्तलिपि की वस्तुओं की खुरदा उत्पत्ति और बिक्री या मोटा कपड़ा तैयार करना आदि अनेक काम और वस्तुएँ हैं जो औपचारिक क्षेत्र की मांग के कारण ही इस क्षेत्र से प्राप्त होती हैं। संक्षेप में, असंगठित क्षेत्र अप्रासंगिक और तो नहीं है बल्कि दूसरे क्षेत्रों के साथ आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी ढंग से जुड़ा हुआ है और उसके लिए आवश्यक सेवाएं और वस्तुएँ उपलब्ध कराता है।

इस आपसी रिश्ते का कुछ ठोस प्रत्यक्ष अध्ययन करने पर चित्र कुछ ज्यादा स्पष्ट हो सकता है। पर यहाँ इतना कहना काफी है कि खिंचाव के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं सस्तापन, सकुशल काम और सादी टेक्नोलॉजी अधुरा विशलेषण है। इसमें बाल श्रमिकों के आकर्षण और योगदान का सही चित्रण नहीं है। दरअसल, जैसा हमने ऊपर बताया है, इस क्षेत्र में बच्चों के आने का सही कारण संगठित और असंगठित क्षेत्रों के स्वरुप में और दोनों को जोड़ने वाली विशिष्ट रचना में खोजा जा सकता है।  दूसरे शब्दों में, इस क्षेत्र में बाल श्रमिकों की मांग का कारण समझने के लिए उसके द्वारा तैयार किये जाने वाली वस्तुओं  और उसकी सेवाओं का विशलेषण करना जरूरी है कि उससे अर्थव्यवस्था में क्या मदद पहुँचती है, उसकी मांग का मूल क्या है और उत्पन्न वस्तुओं का विनियोग कैसे होता है।

इसका पूरा अंतर खोजने के लिए, उस रिश्ते के तकनीकी और सामान्य पहलुओं का ही विशलेषण करना काफी नहीं होगा, राजनैतिक सन्दर्भ को भी देखना होगा, यानी उन रिश्तों का नियंत्रण किसके हाथ में हो, वह कैसे नियंत्रण करता है और उस रिश्ते का आखिर समाज और राजनीति से किस प्रकार का सम्बन्ध है।

अनौपचारिक क्षेत्र की मूल धारणा में ही एक चूक है। आमतौर पर ऐसा लगता है कि वह बड़ा अव्यवस्थित और अनियमित हो, लेकिन यह सही नहीं है उसमें अच्छी खासी व्यवस्था देखने में आती है।

कई शहरी लघु उद्योग हैं जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे लगाये जाते हैं जैसे-बूट पालिश, अखबार बेचना, कार धोना और भीख मांगना आदि हैं। उनमें कई नियमों का पालन जरुर होता है, यद्यपि उसे मानना अनिवार्य नहीं है परन्तु वे कड़े नियम हैं। उस व्यापार में दाखिल होना, काम का क्षेत्र, कमाई का बंटवारा आदि उसके कुछ उदाहरण हैं।

फिर इस क्षेत्र के लघु उद्योगों में यह भी देखा गया कि उसका आकार और नियंत्रण दोनों में उत्तराधिकारी चलता है और अक्सर उसका मुख्य नियंत्रक कहीं दूर बाहर रहता है, किसी संगठित क्षेत्र  में लगा होता है और उसका राजनैतिक सत्ता और प्रभाव वाले लोगों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। काम के इलाके की सीमा तय करने के (खासकर भीख मांगने और वेश्यावृत्ति जैसे कामों के लिए) अनौपचारिक नियम, अमुक व्यापार में दाखिल करने के बारे में नियंत्रण, कमाई के बंटवारे के तरीके खासकर तथाकथित स्वयं रोजगार में (अं,श्र.सं. 1979,29) क्षेत्र के आकार थे और नियन्त्रण का उत्तराधिकार और बाहरी राजनीति से महत्वपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं। ये सब बताते हैं कि इस क्षेत्र का संगठन बड़ा मजबूत हैं इसकी रचना उत्तम है। इनको एक ढांचे में लाना या सुगठित करना सत्ता और प्रभाव जमाने का मुख्य उपाय हैं क्योंकि इससे असंगठित क्षेत्र आज विकासशील देशों की अर्धंनिति और समाज के उभरते नये तरीकों के एक अविभाज्य अंग के रूप में जुड़ जाता है।

इस तथाकथित असंगठित क्षेत्र के स्वरुप की विशेषताएं संक्षेप  में इस प्रकार हैं

  • आकार और नियत्रण में उत्तराधिकार,
  • व्यापार में दाखिल होने के विशिष्ट नियम
  • इलाकों की सीमा का निर्धारण
  • कमाई का (कमाने वाले के अलावा दूसरों में भी) बंटवारा,
  • (बाहरी सम्पर्क के साथ) सत्ता और प्रभाव जमाने लायक रचना,
  • काम करने वालों और काम देने वालों के बीच उत्पादन के मामले में प्रबल ‘वैयक्तिक’ सम्बन्ध (जो संगठित क्षेत्र में नहीं है। वहाँ जो भी सम्बन्ध हैं वह बाजारी हाँ निवैयक्तिक हैं)

इस प्रकार खिंचाव वाली दलील यहाँ महत्वहीन हो जाती हैं क्योंकि वह यह मानकर चलती है कि असंगठित क्षेत्र अव्यवस्थित और अनियमित है। और इसे कानून की निगाह से छिपाकर रखा जा सकता है। लेकिन यदि यह सही है कि यह क्षेत्र सुगठित है और उसके व्यापार में दाखिल होने के अपने कड़े नियम हैं तो फिर उसमें बच्चों के आकर्षित होने के कुछ और ही कारण होने चाहिए। दरअसल निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र की जो विशेष  सत्ता रचना है उसका असर मजदूरी की दर पर, काम के तरीके पर. भर्ती पर तथा काम और मजदूरी के सम्बन्धों पर पड़ता है। यही कारण है कि अर्थनीति पर राजनीति का जोर चलता है।

यह जरुर सही है कि इस क्षेत्र में बाल श्रम को कानून और प्रशासन की निगाह से छिपाया जाना आसान है। लेकिन हम मानते हैं कि यह इस क्षेत्र को बदनाम करने की व्यापक समस्या का एक अंग है। उदाहरण के तौर पर इस पर यह इल्जाम लगाया जाता है कि इसकी प्रवृत्तियाँ और काम ज्यादातर (फेरी, भीख, वेश्यावृत्ति आदि) गैर क़ानूनी हैं। हमारा मानना है कि यस इस क्षेत्र  में चार पैसे कमाने के लिए काम करने वाले लोगों की उन गतिविधियों का नियत्रण  करने  वाले तंत्र के हैं, और उन उद्योगों से निकलने वाली वस्तुओं की ओर सेवाओं की मांग के हैं। इस मुद्दे पर हम आगे कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे।

माता-पिताओं की भूमिका

उपर्युक्त चर्चा से सहज ही एक और बात की ओर ध्यान जाता है और वह है घरों में बच्चों से काम कराना और उनके श्रम का उपयोग। अनौपचारिक क्षेत्र में गतिविधियों के उत्तराधिकार और नियंत्रण की जो स्थिति है बिलकुल वैसी हालत घरों में भी हैं। परिवार के भीतर बाल श्रम के उपयोग का मामला इस बात से जुड़ा है कि उसके ऊपर नियंत्रण किसका है। परम्परा से बच्चों के श्रम पर माता-पिता का, अभिभावकों का या घर के बड़ों का अधिकार है, वे ही उससे लाभ उठाते हैं। असल में प्रभुत्व के सवाल से जुड़ा मामला है, यानी देखने की बात यह कि ‘नाबालिग’व्यक्ति के काम/श्रम से उत्पन्न माल पर किस बड़े व्यक्ति का किस हालत में किस तरह का प्रभुत्व है। वहीं तक से कम गैर-पशिचमी संस्कृतियों में कुछ बातो पर निर्भर हैं वहीँ तक सिमित है। जैसे अफ्रीका में, बाल श्रम पारिवारिक रिश्तेदारी के साथ जुड़ा है, इसलिए बच्चों के श्रम का, निजी फायदे के लिए बेहिसाब उपयोग करने की वृत्ति पर सहज प्रतिबन्ध लगता है (ई.शील्ड क्राउट, 1981: 87) जब उत्पादन के तरीकों में फर्क आता है और उस कारण व्यापक समाज और अर्थव्यवस्था में परिवारों की भूमिका बदलती है, तब बच्चों के लिए खतरा पैदा होता है। जहाँ भी उत्पादन की इकाई परिवार या रिश्तेदारी की नहीं रहती, कोई ‘उद्यम’ वह इकाई बनती है, या परिवार या परिवार इकाई होते हुई भी उस पर बाहरी तंत्र का अधिकार हो जाता है, परिवार में बच्चों के काम पर घर के बुजुर्गों का प्रभुत्व नहीं रह जाता, तक लाभ उठाने वाली बाहरी शक्तियाँ बाल श्रम का अनेक तरह का दुरुपयोग करने से बाज नहीं आती। जैसे शील्ड क्राउट ने सुदंर ढंग से कहा है (1981:10) जोभी  बाल श्रमिक मजदूरी की अर्थव्यवस्था के अंतर्गत काम करता है  वह मात्र श्रमिक हैं जो संयोग से कम उम्र का है। वह परिवार में जब काम करता है तो वहाँ वह मात्र बालक है जो काम करता है।

अंत  में, इस बात पर गौर करना जरुरी है कि बाल श्रम के उपयोग पर पारिवारिक प्रभुत्व का या पारिवारिक रचना में परिवर्तन किस तरह प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, सामूहिक संयुक्त परिवार टूटकर छोटे-छोटे स्वायत्त परिवार बन जाये तो उसके परिणाम क्या होंगे? भारत में, हम देख रहे हैं कि ज्यादातर आव्रजित परिवार ऐसे टूटे छोटे परिवारों के उदाहरण हैं। इन आव्रजित परिवारों में बाल श्रम के उपयोग की हालत का अध्ययन बड़ा बोधप्रद हो सकता है। आधुनिकता के कारण परिवार लगातार विखर रहे हैं। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में गरीब काम की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। बाल मजदूरी पर अब एक इसका प्रत्यक्ष अध्ययन कम हुआ है।

ऐतिहासिकता

उत्पादन पद्धति के बदलाव और उसके परिणामों का अध्ययन करने पर सहज ही हमारा ध्यान खिंचाव और दबाव सिद्धांत की तीसरी बुनियादी धारणा की ओर जाता वह यह है

  • आज के विकसित समाजों को भी 18वीं और 19वीं सदियों में इसी प्रकार के अनुभवों से गुजरना पड़ा था जब उद्योगीकरण की शुरुआत हो रही थी और बच्चों व महिलाओं के श्रम का बेहद दुरूपयोग हो रहा था।
  • विकसित समाज आज यही अनुभव कर रहे हैं कि एक बार औद्योगिकरण की काफी प्रगति हो जाय सामाजिक परिस्थितियाँ परिपक्व हो जाय और जनमत जागृत हो जाए तो बाल श्रम समस्या कोई समस्या नहीं रह जाएगी।

हमारी दृष्टि से, उपर्युक्त सोच में कई खामियां हैं। इस विचार का आधार यह धारणा है कि इतिहास अपने को दुहराता है। इसके अलावा वह विचार आज के इन विकासशील देशों और 19वीं सदी के यूरोपीय देशों में अनेक समानताओं की कल्पना करता है। ये धारणाएँ वास्तविकता पर आधारित नहीं हैं । कई अध्ययनों से स्पष्ट हो गया है कि समाज रचनाओं के बारे में ऐसी समानताओं की कल्पना भ्रम पैदा कर देती है। आज के विकासशील देशों की जीवन पद्धति पिछली सदी के यूरोपीय समाज की जीवन पद्धति से बहुत भिन्न है और स्पष्ट शब्दों में यु कह सकते हैं कि विकासशील देशों का आम सुझाव उन विकसित औद्योगिक और तकनीकी प्रतिक्रियाओं को अपनाने की ओर बिलकुल नहीं हैं जिनमें बच्चों के श्रम के लिए गुंजाइश नहीं है। इसके विपरीत, इन देशों में हम देख रहे हैं कि असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र बढ़ता जा रहा है जिनका तकनीकी आधार (उनमें लगने वाली पूंजी और मजदूरी की मात्रा की दृष्टि से) और पुनः निवेश करने के लिए बचायी जा सकने वाली पूंजी की मात्रा  दोनों इतनी कम और तंग है जिसमें इस तरह का परिवर्तन संभव नहीं है। एवं यह परिवर्तन माल की संगठित क्षेत्र में मांग के अनुपात में हो रहा है। असंगठित क्षेत्र की वृद्धि को बढ़ावा देने वाले तत्व तथा उस क्षेत्र का नियंत्रण करने वाली सत्ता रचनाएँ बाल श्रम की मांग को लेकर बनाये रखती हैं।

विकासशील देशों में ज्यादातर श्रमिक बच्चे ग्रामीण कृषि क्षेत्र में पाए जाते हैं उनमें भी ज्यादातर बच्चे बड़ी पूंजीवाले फार्मों या बागानों, बगीचों में नहीं बल्कि छोटे परिवारिक चकों, या मध्यम तथा अमीर किसानों के खेत में दिहाड़ी पर या कुछ समय के लिए काम करते हैं। ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है कि इस ग्रामीण क्षेत्र को आधुनिक सक्षम क्षेत्र में जिसमें बड़ी पूंजी लगती है और उद्योग के रूप में जो चलता है, बदला जायेगा। इन देशों के विकास का रूप उल्टा है यहाँ विनिमय-प्रधान बाजार तेजी से बढ़ रहे हैं जिसके साथ बिक्री योग्य कृषि उत्पादों  को उगाने वाले छोटे और मध्यम स्तर के किसानों को महत्व दिया जा रहा है जिसमें बड़े पैमाने पर देहाती श्रम शक्ति का उपयोग हो सकता है। दरअसल, ऐसा दिखाई देता है कि बाजारी अर्थव्यवस्था का विस्तार करने के पीछे जीविका से सम्बन्धित लघु उद्योगों के क्षेत्र का ही भरोसा रहा है जो सस्ती उपभोग सामग्री मुहैया कर सकता है और सस्ती श्रम शक्ति को काम में ला सकता है। इस तरह का विकास सचमुच नया है और हाल के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देखने में नहीं आया।

तीसरी बात, स्कूल शिक्षण को एकदम निःशुल्क कर दिया जाये तो भी बाल श्रम घट ही जायेगा यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है, आज भी देखा जाता हैं कि स्कूलों में बच्चे बड़ी संख्या में गैर हाजिर रहते हैं और पढ़ाई बीच में छोड़ जाने वालों की संख्या भी काफी है। इससे लगता है कि स्कूल की पढ़ाई के समय में बच्चों को कहीं और जगह जरूरत रहती है। (लीला दुबे 1981:२05) अफ्रीका के मामले में, आमतौर पर यही सुनते हैं कि पढ़ाई अधूरी छोड़ देने वालों में ज्यादातर बच्चे शहरों में नौकरी की तलाश करने जाते हैं। (एम.बोकांबो, 1981:113-129)

सार यह कि उतावली में यह कह देना कि ये दोनों दो लम्बे समय से चली आ रही समानांतर रचनाएँ हैं, सही नहीं है।

इसलिए पिछली सदी के यूरोपीय समाज के अध्ययन के आधार पर आज के बाल शोषण की स्थिति का मूल्यांकन करना और उसकी प्रशंसा और अनुकरण करने की कोशिश करना व्यर्थ समय गंवाना ही है। (ए.मोरिस 1981:148)

इस चर्चा से शायद यह भ्रम पैदा होता होगा कि पिछली परिस्थितियों का परीक्षण करने की जरूरत ही नहीं है। अर्थविकसित समाजों में बाल शोषण के बारे में अध्ययन करते समय वर्तमान परिस्थिति की विशेषता को समझना तो होगा ही, साथ ही, जबसे औद्योगिक क्रांति हुई है और उत्पादन की पद्धति कृषि मूलक न रहकर औद्योगिक हुई है, तबसे जहाँ भी बच्चों को काम पर लगाया जा रहा है और उनका शोषण किया जा रहा हो उसके पीछे निहित मूल कारण को भी समझना होगा। यहाँ संक्षेप में एक मामले का विशलेषण करें।

यूरोप में होने वाले बाल शोषण का विवेचन करने क एक जोरदार प्रयास कार्ल मार्क्स ने किया था। कई ‘चिल्ड्रन्स एम्प्लायमेंट कमिशनों’ की रिपोर्टों के निष्कर्षों पर मार्क्स ने अनिवार्य पूंजीवादी परिस्थितियों में (1841-1860 के बीच) बच्चों और औरतों घोर और अबाघ शोषण के मूल कारणों को खोजने की कोशिश की वहाँ की सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति में ही उसने दोष पाया और कहा:

  • उत्पादन पद्धति में फर्क आया, घरेलू और हाथ की कारीगरी की जगह छोटे-छोटे कारखाने बने, फिर बड़ी फैक्ट्रियों में बदल गए। शोषण के खास स्थान वे छोटे कारखाने ही हैं।
  • श्रम की नई प्रक्रिया दाखिल हुई, अलग विभागों में श्रम बढ़ गया जिसके लिए थोड़ी बहुत कुशलता चाहिए और उसके लिए प्रशिक्षण भी चाहिए।
  • उत्पादन प्रक्रिया की बुनियादी तकनीक भी बदल गयी, मनुष्य या पशु की शारीरिक शक्ति की जगह भाप काम आने लगी।
  • कम पूंजीवादी छोटी उत्पादन इकाइयों पर जैसे हस्तशिल्प आदि पर अधिक संगठित और उच्च स्तर के उद्योगों का (जिनमें अच्छी खासी पूंजी लगती) दबाब पड़ने लगा, उन उद्योगों ने खुद टिकने के लिए भाव भी घटा दिया।
  • कृषि मूलक उत्पादन की जगह औद्योगिक सिद्धांतों और तर्कसंगत पूंजीवादी उत्पादन का दाखिल होना था कि बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीण कारीगर विस्थापित हो गए।

इस प्रकार मार्क्स के विशलेषण के अनुसार इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिति में बाल श्रम के शोषण का कारण यह था कि वहाँ कृषि प्रधान व्यवस्था की जगह औद्योगिक व्यवस्था ने ली(कार्ल मार्क्स, दास कैपिटल, खंड-1)

विकासशील देशों की आज की परिस्थिति में इस विशलेषण का क्या कोई उपयोग है? ऊपर-ऊपर से देखने पर दोनों परिस्थितियों के बीच कुछ समानता भले दिखाई दे, लेकिन बारीकी से विशलेषण करें तो कई बुनियादी फर्क दिखाई देंगे। यह हम आगे दर्शाएंगे। जैसे आज विकासशील देशों में हस्तशिल्प के और छोटे पैमाने के उद्योगों के फैक्टरी-उत्पादन में सहज बदलते जाने की उत्क्रांति प्रक्रिया एक समस्या बन गयी। इसके अलावा छोटे पैमाने के घरेलू धंधे और उत्पादक उद्योग प्रायः असंगठित क्षेत्र में चल रहे हैं और फैक्टरी उत्पादन संघटित क्षेत्र में हैं। एक ओर से दोनों अलग-अलग हैं और दूसरी ओर दोनों के बीच घना रिश्ता भी है। (खास वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान के रूप में) यह बड़ा विचित्र विरोधाभास है। छोटी उत्पादक इकाइयों द्वारा नयी तकनीक अपनाकर और भारी पूंजी लगाकर, अपनी इकाइयों को फैक्ट्रियों में बदलना मुश्किल है। जैसा पिछली सदी में यूरोप में हुआ। दरअसल, इसका कारण यह है कि असंगठित क्षेत्र में बड़ी मात्रा में श्रम शक्ति का उपयोग हो पाता है, इसलिए उसका विस्तार जारी रहने वाला है। दूसरे शब्दों में वर्तमान में उत्पादन प्रक्रिया में नई तकनीक दाखिल करके बाल श्रम को घटाने की बात आज दोबारा लागू हो नहीं सकती। उत्पादन-प्रक्रिया में परिवर्तन कर विकासशील देश बाल मजदूरी को खत्म करने की ओर कदम उठायेंगे इसकी संभावना कम है। उल्टे, चाहे जितने कानून बनें, अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें, उसके खिलाफ जनमत मत तैयार कर लें, फिर भी वह तो बढ़ता ही जाने वाला है। मार्क्स के विशलेषण का इतना उपयोग जरुर है कि उससे हमारा ध्यान आज की परिस्थिति की विशेषताओं की ओर गया।

  • विस्थापित किसानों की बाढ़ सी आ रही है, देहाती क्षेत्र में उनकी स्थिति बदल नहीं सकती , वे किनारे पर ही रह जाने वाले ह
  • देहाती श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी घट जाएगी और बहुत हुआ तो वहीं स्थिर रह जाएगी।
  • कर्जदारी और बंधुआ स्थिति बढ़ेगी।
  • असंगठित क्षेत्र अनिवार्य है, उसका विस्तार होता जायेगा।
  • बाजार के लिए घरेलू माल तैयार करने का महत्व बढ़ेगा।
  • चंद खास आर्थिक वस्तुओं के क्षेत्र को, जैसे कुटीर उद्योग, बड़े सार्वजानिक क्षेत्र आदि को, सरकारी सब्सिडी तथा संरक्षण देना आवश्यक होगा।
  • रोजगार देने के मुख्य उपाय दिहाड़ी और थोड़े समय के लिए काम देने के ही रह जायेंगे।

इस सन्दर्भ में वैश्वीकरण के कारण नये समीकरण उभर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन एवं वर्ल्ड बैंक दोनों श्रम स्तरों में बाल मजदूरी उन्मूलन की शर्त जुड़वाने का प्रयास कर रहे हैं। इस पर अधिक शोध की आवश्यकता है जो वर्तमान में अध्ययन का केन्द्र बिंदु नहीं है। वर्ल्ड बैंक ने हाल ही में बाल मजदूरी सम्बन्धी अपनी गाईड लाइन्स प्रकाशित की है जिसके अंतर्गत बाल मजदूरों को काम को हटाने के साथ-साथ शिक्षा से जोड़ने का प्रावधान है।

अर्थविकास और बाल श्रम का शोषण

क्या कारण हैं कि इनते ज्यादा बच्चे काम की तलाश करते फिरते हैं, क्या मजबुरी है? कि माता-पिता अपने बच्चों की कम से कम मजदूरी पर काम करने भेजते हैं, या घर के कामकाज में उनके श्रम का उपयोग करते हैं। ऐसा क्यों होता है कुछ खास आर्थिक क्षेत्रों में ज्यादा बाल मजदूरों को काम पर लगाया जाता है? इन सवालों के उत्तर में आज की तथा पिछली सदी की परिस्थितियों के अंतर का रहस्य छिपा है। निम्मलिखित तीन बुनियादी अंतर उल्लेखनीय हैं

  • आमतौर पर एक अंतर इस बात में है कि तथाकथित ‘असंगठित’ क्षेत्र राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सी और तदद्वारा जागतिक अर्थव्यवस्था से किस रूप में जुड़ा हुआ है।
  • दूसरा अंतर इस बात में है कि देहाती अर्थव्यवस्था के परिवर्तन पर वह कितना और कैसे प्रभाव डालता है।
  • अंतिम यह कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की खास क्षेत्र (जैसे-बागान, खादान यह तथाकथित मुक्त बाजार क्षेत्र) किस प्रकार विदेशी मुद्रा कमाने के बड़े या प्रमुख साधन के रूप में महत्व प्राप्त करते हैं।

हम यह मानकर नहीं चल सकते कि विकासशील देशों में उत्पादन के पूंजीवादी व्यवस्था के पहले के तरीके (जैसे घरेलू उत्पादन इकाइयां, लघु और कुटीर उद्योग, छोटे वर्कशाप, छोटे उत्पादन संस्थान आदि पूंजीवादी उत्पादन इकाइयों में तब्दील हो चले हैं, उल्टे, यही देखने में आता है कि, आय की मात्रा में खास उल्लेखनीय वृद्धि न होने के बावजूद यह असंगठित क्षेत्र, बड़े पूंजी प्रधान क्षेत्र की तुलना में, अधिक तेजी से विस्तार पाता जा रहा है। दूसरी बात यह कि ग्रामीण कृषि क्षेत्र के परिवर्तन में ऐसा देखने में नहीं आ रहा है की सक्षम पूंजी प्रधान कृषि इस्टेट बनते जा रहे हों, जैसे ब्रिटेन में पिछले सदी में हुआ था। हम तो यही देख रहे हैं कि छोटे-छोटे और मध्यम स्तर के फार्म बन रहे हैं जिनमें मुख्य रूप से ग्रामीण श्रमिकों को सामयिक आधार पर काम पर लगाया जाता है। दरअसल, हरित क्रांति का कृषि के यंत्रीकरण और व्यापारीकरण का साधनहीन लोगों पर इतना ही प्रभाव पड़ा की समायिक श्रमिकों के रूप में उन्हें काम मिला घरेलू महिलाओं और बच्चों की श्रम शक्ति का अधिक उपयोग हो सका। (दास गुप्ता 1977:204) काम देने वाले और काम करने वाले लोगों के आपसी रिश्ते  “गैर बाजारी रहे”, जैसे-पारिवारिक रिश्तेदार, जाति-बिरादरी वाले, कर्जदार और बंधुआ आदि।

विकासशील देशों में बाल श्रम के शोषण में जो वृद्धि हुई है उसके पीछे मुख्य कारण है सामयिक मजदूरी और खुदरा काम की पद्धति । यह  बेकारी/अर्धबेकारी, कम मजदूरी आदि कारणों से अधिक सही लगता है।

सामयिक रोजगार की पद्धति की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है की उसमें आधुनिक उद्योगों की अपेक्षा कहीं ज्यादा बच्चों को काम देने की क्षमता है”

ग्रामीण खेतिहर श्रमिकों  का बहुत बड़ा भाग इसी आधार पर काम कर रहा है। तीन प्रकार के उद्योगों में लघु उद्योग (हथकरघा, छोटे विद्युत चालित करके आदि) हस्तशिल्प और घरेलू धंधे (बीड़ी बनाना आदि) इसमें पीस-रेट पर मजदूरी चुकायी जाती है। पीस-रेट पर मजदूरी चुकाने के तरीके ने भी बच्चों को काम पर लगाने को बढ़ावा दिया है क्योंकि वे सहायक के रूप में या पूरे श्रमिक के रूप में काम कर लेते हैं” (लीला दुबे, 1981:99) छोटे जमीदारों या साहूकारों से लिए मामूली कर्ज की अदायगी के लिए बच्चों को बंधक बनाने की प्रथा ने भी बाल श्रम को प्रोत्साहन दिया है। निर्माण कार्यों  में ठेके पर काम कराने या पूरे कुटुंब को रोजगार देने की प्रथा के कारण भी बच्चों के रोजगार को बढ़ावा मिलता है, यह पहले ही हम देख चुके हैं।

उपर्युक्त चर्चा का सार यह है पहली बात यह की हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि विकासशील देश आज पिछले सदी के यूरोपीय राष्ट्रों से भिन्न मार्ग खोजने में लगे हुए हैं। दूसरे बात बाल श्रम का शोषण ख़त्म होना तो दूर रहा, वह ज्यों का त्यों बना हुआ है बल्कि बढ़ता भी जा रहा है। कानूनों के बावजूद, शिक्षा व्यवस्था के बावजूद। और भारत में अभी भी बाल मजदूरी उन्मूलन के पक्ष में सशक्त सामाजिक मत नहीं बना। ऐसी स्थिति में बालिका द्वारा मजदूरी के उन्मूलन के कार्य तो दूर उनकी चर्चा भी नहीं की जाती है। शिक्षा प्रबंध किया गया और जनमत भी तैयार किया गया, पर स्थिति पर काबू  नहीं पाया जा सका है।

स्रोत:- जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची।

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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