आठ साल की अंजना अपने घर के छोटे से आँगन में बैठी है। उसके पास उसकी छोटी बहन भी बैठी हैं तीन साल की वह बच्ची अपनी बहन की उँगलियों को कटा-कट काम करते देख रही है। अंजना छोटी-छोटी लड़कियों के टुकड़े उठाती है, उन्हें मोड़ती है और एक बॉक्स की शक्ल देती है फिर एक रंगीन कागज उठाती है। गोंद से कुछ चिपकाती है तथा उसकी उँगलियाँ फिर रंगीन कागज में खो जाती है।
रानी की उम्र बारह साल है। अब वह घर में माचिस बॉक्स नहीं बनाती बल्कि शहर के पास एक छोटे से कारखाने में जाती है। वहाँ रानी जैसे सैकड़ों लड़कियाँ रोजाना काम पर आती है। रानी ने स्कूल की शक्ल तक नहीं देखी। कैसे देखती, बचपन में ही छोटे भाई-बहनों के देखरेख पर लगा दिया गया था। इससे माँ को बाहर काम करने में कोई दिक्कत नहीं आई। जब रानी 6 साल की थी तब उसकी माँ ने घर में ही माचिस बॉक्स बनाने का काम ला दिया। वह बहन-भाइयों की देखरेख के साथ माचिस बनाने लगी और कुछ पैसा भी कमाने लगी। दस साल की उम्र में घर से बाहर निकली और घर के पास ही एक दुकान पर यही काम करने लगी और बारह साल की उम्र में उसने अपने पैर कारखाने में रखे। चूँकि अभी वह कानूनन कारखाने में मजदूरी नहीं कर सकती थी इसलिए उसके मलिक ने उसकी उम्र 14वर्ष लिख रखी है। रानी भी अब सबको अपनी उम्र ही बताती है।
यह दृश्य तमिलनाडु के शिवकाशी और उसके इर्द-गिर्द क्षेत्र का है। शिवकाशी संसार का वह इलाका हैं जहाँ सबसे ज्यादा बालिका मजदूर काम करती हैं। इस अर्थ में यह इलाका विश्व की बालिका मजदूर राजधानी है। तमिलनाडु का यह शहर माचिस और पटाखा उद्योग के लिए विश्वप्रसिद्ध है। देश में बनने वाली माचिसों का 75 प्रतिशत और पटाखों का 90 प्रतिशत उत्पादन यहीं होता है। शहर एवं आस-पास में माचिसों के अंदाजन 6,000 कारखाने हैं और आतिशबाजी बनाने वाले कारखानों की संख्या 200 के आस-पास है यूनिसेफ के क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (1980) के अनुसार माचिस उद्योग में मजदूरों की संख्या 106,648 थी। इनमें 45,269 बाल मजदूर थे। गुरुपादस्वामी की रिपोर्ट (1979) के अनुसार बाल मजदूरों की संख्या 50 हजार है। जबकि 1986 का एक सरकारी सर्वेक्षण ऐसे बच्चों की संख्या 141,121 बताता है। लेकिन यह जगजाहिर है कि आंकड़ों को छुपाने में इस देश को महारत हासिल है।
अंदाजन 40 हजार बच्चे सूर्य उदय होने से पहले ही अपना घर छोड़ देते हैं। वे पढ़ने के लिए नहीं उठते बल्कि अपने काम पर जाने के लिए उठते हैं। इस व्यवसाय में बच्चे बचपन से ही माता-पिता के काम में हाथ बंटाने लगते हैं। 3-14 साल की उम्र वर्ग वाले बच्चे इस व्यवसाय में अपना श्रम बेचते हैं। माता-पिता लड़कों की पढ़ाई में तो रूचि लेते हैं मगर लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते। इसे पीछे उनकी दलील व मानसिकता दहेज़ के लिए पैसा इकट्ठा करना व घर में अकेली लड़की की सुरक्षा का सवाल है। कभी बहिन अपने साथ कारखाने ले जाती है तो कभी घर में तीन-चार लड़कियां इकट्ठे मिलकर माचिस बनाने का काम करने लगती हैं। तमिलनाडु सरकार और यूनिसेफ द्वारा तैयार की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार कुल श्रम शक्ति को 90 और बाल मजदूरी का 80 प्रतिशत तक महिलाएं और लड़कियाँ हैं।
माचिस उद्योग से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक 76 प्रतिशत लड़कियाँ माचिस के फ्रेम बनाने और 4 प्रतिशत बैंड रोलिंग के कामों में लगी हैं। अधिकांश लड़कियाँ माँ-बहन के काम में हाथ बंटाने के उद्देश्य से काम में प्रवेश करती हैं और धीरे-धीरे स्वतंत्र रूप से कमाने लगती हैं।
माचिस तथा पटाखा उद्योग में बच्चे गन पाउडर रोल करने, पटाखे बनाने तथा पटाखों की पैकिंग का काम करते हैं। ये खतरनाक काम हैं। बच्चे माचिस बॉक्स बनाने, उस पर रंगीन कागज और लेबल चिपकाने का काम भी करते हैं। माचिस बॉक्स में तीलियाँ भरने का काम भी काम करते हैं। काम का विभाजन भी लिंग के आधार पर तय किया जाता है। कारखानों के मालिक व ठेकेदार महिलाओं व बालिकाओं को अकुशल कार्यों में लगाते हैं और लड़कों को रसायन का घोल बनाने और पेंटिग का काम सिखाया जाता है ताकि उनका भविष्य आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो सके। पटाखा उद्योग में रसायनों का उपयोग कम उम्र के बच्चों को बुरी तरह प्रभावित करता है। और वे अक्सर बीमार पड़ जाते हैं।
यहाँ बच्चों को प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। कारखानों में दूषित हवा की निकासी और साफ हवा के आने का उचित प्रबध नहीं है। रोशनी भी अपर्याप्त है। यहाँ तक कि पेय जल और शौचालय भी बहुत कम कारखानों में हैं। यहीं नहीं बाल मजदूरों को औसतन 12 घंटे काम करना पड़ता है। कभी कभार ये बच्चे 14 घंटें भी काम करते हैं। सस्ती बाल मजदूरी कराने के लिए कारखानों के मालिकों के आदमी सुबह बसों में इन्हें भेड़-बकरियों की तरह भरकर कार्य स्थल पर ले जाते हैं। इनसे ज्यादा काम लेने के लिए कार्य स्थलों पर तमिल फिल्मों के भड़काऊ गानों की कैसेट लगायी जाती है ताकि बच्चों की नींद न आए और संगीत की धुन उनकी उँगलियों की गति भी बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो। माचिस उद्योगों में स्थायी कर्मचारी बहुत कम रखे जाते हैं। मजदूरी पीस रेट के आधार पर दी जाती है। मेहनताना बहुत कम मिलता है। एक फ्रेम भरने के 55 पैसे। माचिसों के 144 भीतरी बॉक्स बनाने के 60 पैसे, 300 बॉक्स पर लेबल लगाने के 60 पैसे। स्थायी कर्मचारी न होने के कारण बाल मजदूर अपने हितों की लड़ाई नहीं लड़ पाते। बालिका मजदूरों की स्थिति तो और भी दयनीय है। बालिका मजदूरों की प्रतिमाह सप्ताह औसतन मजदूरी 38 रूपये हैं। लेकिन या आंकड़ा 13 से 70 रूपये के बीच झूलता रहता है। छोटी बालिका को तो यह रकम भी नहीं मिलती। क्योंकि उनकी गिनती माँ या बहन के मददगार के रूप में की जाती है। इसलिए उनकी मेहनत व पारिश्रमिक की अलग से कोई पहचान नहीं बन पाई है।
इस आर्थिक शोषण के साथ-साथ उन्हें कई बार कारखानों के निरीक्षण और दूसरे कमर्चारियों की अश्लील हरकतों का भी सामना करना पड़ता है। माचिस व पटाखा उद्योग से जुडी अधिकांश बालिकाएँ अनपढ़ है। छोटी बच्चियां काम पर जाती हैं, जबकि उसी उम्र के लड़के स्कूल जाते हैं। बच्चियों को काम पर इसलिए भेजा जाता है कि वे अपने दहेज समस्या से भी जुड़ी है। 115 बालिकाओं पर किये गए अध्ययन से पता चलता है कि 14 साल से कम उम्र की महज 20 प्रतिशत लड़कियाँ कक्षा एक में भर्ती थीं। ठीक इसके उलट 71.4 प्रतिशत लड़के स्कूल जाते थे। लड़कियों के घर बैठाने के पीछे एक मुख्य कारण यह है कि घर में छोटे-बहन भाइयों की देखभाल करती है ताकि माता-पिता रोजाना बाहर जाकर दिहाड़ी तलाश कर सकें। बालिका मजदूर कारखानों से लौटकर भी काम में हाथ बंटाती हैं। यही नहीं जो बालिकाएँ स्कूल जाती हैं, वे स्कूल से सीधा कारखाने जाती हैं ताकि माँ-बहन के काम को पूरा करने में मदद कर सकें और उनकी आर्थिक कमाई में वृद्धि ही। बालिकाओं पर आर्थिक योगदान का इतना दबाव है कि वे साप्ताहिक अवकाश वाले दिन भी कारखानों में काम करने जाती हैं। बेशक अगले दिन उनकी परीक्षा ही क्यों न हो। यह दबाव दक्षिण भारत में बढ़ रही दहेज प्रवृत्ति की ओर भी इशारा करता है।
इस उद्योग में बाल मजदूर लगातार रसायनों के सम्पर्क में रहकर काम करते हैं। उनका मुख्य काम गन पाउडर रोल करना, पटाखे बनाना तथा पटाखों की पैकिंग आदि करना है। माचिस की तिललियों पर पैराफ्रिन लगाने, माचिस बनाने की प्रक्रिया में रसायनों और मोम की 67 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर मिलाया जाता है। यह काम करते वक्त बाल मजदूरों के बदन पर बहुत ही कम कपड़े होते । यह गर्म वातावरण उनकी कार्य क्षमता और सेहत को प्रभावित करता है। अधिकांश बच्चे साँस सम्बन्धी बीमारियों तथा नेत्रों रोगों से ग्रसित होते हैं। बच्चों को अक्सर तपेदिक, कुपोषण से उत्पन्न बीमारियों पेट की गड़बड़, खाज-खुजली जैसे त्वचा की बीमारियों की शिकायत रहती है। 10-12 घंटे काम करने से शरीर दर्द करने लगता है। शारीरिक दर्द को दूर करने के लिए बच्चे कई तरह की दवाईयां इस्तेमाल करते हैं जो अंततः नुकसानदायक सिद्ध होती है। कई बच्चे तम्बाकू सूंघने से लेकर हल्की नशीली दवाइयों के भी आदी हो जाते हैं। डिब्बियों में तीलियाँ भरने की प्रकिया में तीलियों की रगड़ से कभीकभार कारखानों में आग लगने की घटनाएँ भी होती हैं। आगजनी की घटनाओं से बाल मजदूरों के शरीर पर जलने के निशान देखे जा सकते हैं।
सरकारी प्रशासन व कारखाना मालिक आगजनी की घटनाओं की गभीरता से नहीं लेते। आज तक किसी भी कारखानेदार को जेल नहीं भेजा गया। उनसे कुछ सौ रूपये जुर्माना करके छोड़ दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में बाल मजदूरों की उदासी पहले से ज्यादा गहरी हो जाती है।
गौरतलब है कि बाल मजदूरी को निषिद्ध करार देने वाले कानून कहते हैं कि 14 साल की कम उम्र के किसी भी बच्चे से काम नहीं लिया जाएगा। कानून इस तथ्य का भी खुलासा करता है कि बच्चे 6 घंटे से ज्यादा और साथ ही खतरनाक परिस्थितियों में काम नहीं लिया जायेगा पर शिवकाशी में पटाखों की चकाचौंध में कानून को धुंधला दिखाई देने लगा है।
उत्तरप्रदेश का मुरादाबाद शहर। शहर में प्रवेश करते ही मुरादाबादी गुलदस्ते, गमले और बर्तन अपनी ओर निमंत्रण देते हैं। सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी भी इन कलात्मक गुलदस्तों, गमलों और बर्तनों के प्रशंसक व ग्राहक हैं। मुरादाबाद के कम से कम सवा लाख लोग बर्तन उद्योग से जुड़े हैं। अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्योग से जुड़े लोगों की संख्या भी अच्छी खासी है। अनुमान है की 30 प्रतिशत मजदूरों की उम्र 15वर्ष से कम है।
तीन दशक पूर्व तक मुरादाबाद का बर्तन उद्योग एक कुटीर उद्योग था। इस कला में पारंगत लोग ही परिवार सहित इससे जुड़े हुए थे। वे प्याले-प्लेट तथा सजावटी की छोटी-छोटी वस्तुएँ ही बनाया करते थे। मुरादाबादी बर्तनों तथा सजावटी वस्तुओं की विशेषता इनकी नक्काशी है। पहले शिल्पी खुद ही कच्चा माल खरीदते, बर्तन बनाते और बेचते। लेकिन मांग, उत्पादन और खपत की बदलती परिस्थितियों में धीरे-धीरे यह उद्योग शिल्पियों के हाथ से फिसल गया। बाहरी लोगों ने हस्तक्षेप किया। उद्योग विकसित हुआ। मांग के अनुसार उत्पादन को पूरा करने के लिए बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश से मजदूर बुलाए गये। मशीनीकरण हुआ। इस मशीनीकरण का परिणाम महिला मजदूरों के विस्थापन के रूप में सामने आया। महिलाएं मशीन चलाना नहीं जानती थी और पुरुष उन्हें प्रशिक्षित करना भी नहीं चाहते थे। परिणामस्वरुप बाल मजदूरों की मांग बढ़ी। हालाँकि मुरादाबाद के बर्तन निर्माण कारखानों में बाल मजदूरों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। इस उद्योग की विभिन्न प्रक्रियाओं वाली यूनिटों में बाल मजदूरों की संख्या अधिक है। मोल्डिंग, वेल्डिंग, पालिशिंग, स्क्रेपिंग और इलैक्ट्रोप्लेटिंग आदि प्रक्रियाओं में बाल मजदूर काम करते हैं।
जिंक और ताम्बें का इस्तेमाल कच्चे माल के रूप में किया जाता है। बर्तन बनाने के लिए सबसे पहले सिल्लियाँ और शीट बनाई जाती है। अधिकांश कारखानेदार सिल्लियाँ नहीं बनाते। वे दूसरी इकाइयों से मंगवाते हैं। तम्बा, जिंक और दूसरा कच्चामाल बुरादे के रूप में ग्रेफाइट के कोठोरों में भरा जाता है और कोठारों को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है। यह काम वयस्क मजदूर करते हैं। गोलाकार सिल्लियाँ और शीटें निर्माताओं की मांग के अनुसार बनाई जाती है। कटोरे और तश्तरियां इन्हीं सिल्लियों से बनाई जाती है। वस्तु जब बनकर तैयार हो जाती है तो फिर बिल्डिंग, पालिशिंग, इलैक्ट्रोप्लेटिंग और सिल्वर प्लेटिंग का काम होता है। मांग के मुताबिक उन पर नक्काशी और रंगाई का भी काम किया जाता है। यह काम महिला मजदूर तथा लड़कियाँ करती हैं।
बाल मजदूर बर्तनों पर पालिश का काम करते हैं। इसके साथ-साथ वे मोल्डिंग, वेल्डिंग, स्क्रेपिंग और इलैक्ट्रोप्लेटिंग का काम भी करते हैं। यह काम सिल्लियों और शीट बनाने की तुलना में आसान हैं। इसलिए बाल मजदूर इन प्रकियाओं से जुड़े हैं। यह काम वयस्क मजदूर भी करते हैं। पर बाल मजदूरों को वयस्क मजदूरों की तुलना में मजदूरी कम मिलती है। बाल मजदूर 10 घंटे काम करते हैं इस उद्योग में बाल मजदूर कालीन उद्योग की तरह दलालों की जरिए आते हैं।
इनके माता-पिता के एडवांस में 100 रुपया दिया जाता है और उसके बदले बच्चे से सारा महीना काम कराया जाता है।
बाल मजदूरों की तरह महिला मजदूरों का भी शोषण होता है। 20 साल पहले इस उद्योग में मजदूर संख्या बहुत थी। अनुमानतः कुल मजदूर संख्या में उनकी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत थी। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। आज यह 10 प्रतिशत है। इसका मुख्य कारण इस उद्योग का मशीनीकारण है। इस मशीनीकरण से लड़कियों/महिलाओं के रोजगार के अवसर तो कम हुए ही उन पर शोषण का कहर भी बरपा। मालिक, ठेकेदार मशीनों का हौव्वा खड़ा कर उन्हें कम मजदूरी देते है जिस काम के लिए पुरुष मजदूर को 25 रूपये रोजाना मिलते हैं, उसी काम के एक महिला मजदूर को 15 रूपये दिए जाते हैं।
एक तरफ 11 घंटे काम, 200 रूपये महीना मजदूरी, मालिकों की डांट और दूसरी तरफ गरम सांचा भट्ठी पर खड़े होकर काम करना। भट्ठी पर काम करने वाला बाल मजदूर वयस्क होने तक टी.बी. का रोगी हो जाता है। मोल्डिंग और पालिशिंग बर्तन उद्योग की खरनाक प्रक्रियाओं में से है। और बाल मजदूर इन्हीं प्रक्रियाओ से जुड़े हुए हैं। वेल्डिंग, इलैक्ट्रोप्लेटिंग, सांचा भट्ठी पर काम करना, कच्चे माल को पिघला कर ब्रास तैयार करना भी हानिकारक कार्य है। बाल मजदूर ऊँचे तापमान पर भट्ठी को गर्म करते हैं वे कच्चे माल व पाउडर को भट्ठियों में झोंकने के लिए भट्ठियों का मुँह खोलते हैं जिससे गैस, धुआं और आग की ऊँची लपटें उठती हैं। बड़े चिमटों की मदद से ब्रास को भट्ठी से निकालकर बाल मजदूर वयस्क मजदूरों तक पहुंचाते हैं। इस कार्य में थोड़ी सी असावधानी से बाल मजदूर झुलस जाते हैं। बिना किसी सुरक्षा उपायों के बच्चे अत्यधिक तापमान की सांचा भट्ठी पर खड़े होकर कार्य करते हैं। इन भट्ठियों पर बच्चे जलते और जख्मी ही नहीं होते, भट्ठियों से उठने वाली रंगी गैसों और धुएं से उन्हें टी.बी. जैसे संक्रामक बीमारियां भी लग जाती हैं। इस प्रतिकूल कार्य स्थितियों में मजदूर अपनी आधी जिन्दगी ही जी पाता है। इलाज के लिए मजदूर डॉक्टर के पास जाता है। वह काम बदलने की सलाह देता है पर तब तक उसका स्वास्थ्य पूरी तरह से ख़राब हो चूका होता है।
पालिशिंग से भी बाल मजदूरों का स्वास्थ्य प्रभावित होता हैं मशीनों से धातु जे बारीक़ कण और धुआं ही नही उठता, धातु के टुकड़े भी छिटकते हैं। जिनसे बच्चे अक्सर घायल हो जाते हैं। बफिंग मशीन पर पहुँचने से पहले निर्मित वस्तुओं को एसिड से लपेटने का काम बाल मजदूर ही करते हैं। एसिड की टूयूबों से उठने वाली हरी-नीली भाप से दम घुटने लगता है। इससे मजदूरों की छाती में दर्द होने लगता है। साँस सम्बन्धी बीमारियों भी हो जाती हैं। बालिका मजदूरों पर इस उद्योग में विशेष अध्ययन नहीं हुआ है। लेकिन उपस्थिति को कोई नकार भी नहीं सकता है।
ताला और अलीगढ़ एक दूसरे के पर्याय है। भारत में बनने वाले कुल तालों का 80 प्रतिशत यहीं बनता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक 80 से 90 हजार मजदूर परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से ताला उद्योग से जुड़े हैं इनमें 14 साल से कम आयु के बाल मजदूरों की सख्या 7 से 10 हजार के बीच है। ये आंकड़े अनुमान पर आधारित है। वास्तविकता क्या है, इस पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के आंकड़ों में अंतर है। फैक्टरी मालिक और सरकारी अधिकारियों के मुताबिक यहाँ कुछ 55000 मजदूरों में से 5 हजार के लगभग बाल मजदूर है, जोकि कुल संख्या का 9 प्रतिशत है।
1860 में स्थापित इस उद्योग में समय के साथ-साथ बहुत बदलाव हुआ। शुरूआती दौर में स्थानीय कारीगर तालों और तालों के पुर्जों का निर्माण अपने घरों में परिवार के लोगों की मदद से किया करते थे। किन्तु देश विभाजन के बाद अधिकांश मुस्लिम कारीगर पाकिस्तान चले गए और पंजाब प्रदेश से आए हिन्दू व्यापारी इससे जुड़ गए। उन्होंने धीरे-धीरे इस उद्योग की बारीकियों को समझा और बड़े पैमाने पर तालों का निर्माण शुरू किया। ताले घरों में बनने के साथ-साथ कारखानों में भी बनने लगे। इससे तालों की मांग में वृद्धि हुई। इस मांग की वृद्धि ने बाल मजदूरी को बढ़ावा दिया। ताले बनाने की प्रकिया में ढलाई, ड्रम पलिशिग, हैण्ड प्रेस, बकिंग, मशीन पर पोलिशिग, इलैक्ट्रोप्लेटिंग, स्प्रे-पेंटिंग, ऐसेविलंग, पैकिंग के काम आते हैं।
ताला उद्योग में काम करने वाले बाल मजदूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। बाल मजदूर चौदह घंटे हैण्ड प्रेस मशीन पर काम करते हैं। थोड़ी सी लापरवाही, आधिक काम करने से उत्पन्न थकावट से कई दुर्घटनाएं हो जाती है। ऐसे में बच्चों की उंगुलियों के अगले हिस्से प्रायः मशीन से दबकर कट जाते हैं। बकिंग मशीन पर पोलिश का खतरनाक नहीं है। 14 साल से कम आयु के बच्चे ही ज्यादातर इस काम से जुड़े हुए हैं। आठ-नौ साल के बच्चे देर रात तक यह काम करते हैं। यह काम करने वाले मजदूरों का चेहरा चलती हुई मशीन से लगभग दस इंच की दुरी पर स्थित रहता है। रेगमार के पाउडर और धातु के टुकड़ों से निकलती हुई गर्द मशीन पर झुके मजदूरों की साँसों से उनके फेफड़ों तक पहुँच जाती है। पालिशिंग का काम करने वाले बाल मजदूर आमतौर पर सिर से पैरों तक काले पाउडर से लिपे रहते हैं। इससे उनकी एड़ियाँ फट जाती हैं एवं अंदर ही अंदर घाव बढ़ता जाता है।
ताला उद्योग में काम कर रहे कुल बच्चों के 70 प्रतिशत से अधिक बाल मजदूर इलेक्ट्रोप्लेटिंग के काम में लगे हुए हैं। बाल मजदूरों को पालिश किये हुए धातु के टुकड़ों को एक छड़ से लटकाकर ताम्बे के तार बांधने काम दिया जाता है। इस काम में पोटेशियम साइनाइड, डाईसोडियम, फास्फेट, सोडियम सिलकेट, हाइड्रो आक्साइड, क्रोमिक आक्साइड आदि रसायनों का प्रयोग होता है। अधिकतम बच्चे नंगे हाथों से इन रसायनों के घोल को छुते रहते हैं। इसके अलावा ऐसे यूनिटों में धुआं भरा रहता है। वहाँ साँस लेने में बहुत दिक्कत होती है। आँखों में जलन व आंसू आने लगते हैं। फैक्टरी मालिक बाल मजदूरों की चुप्पी का नाजायज फायदा उठाते हैं। उन्हें हाथों में डालने के लिए दस्ताने नहीं दिए जाते। दूषित हवा बाहर निकालने और स्वच्छ हवा के लिए एक्जास्ट पंखे इस्तेमाल नहीं करते।
ताला निर्माण से जुड़े बाल मजदूर बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते है। यह बीमारियां धीरे-धीरे उनके शरीर के अंदर प्रवेश करती है। लोहा तथा दूसरी धातुएं बकिंग मशीन पर चमकाई जाती है। उनका जंग उतारने के लिए मशीन के गोल पट्टियों पर रेगमार का पाउडर लगा रहता है। जंग उतारने के लिए धातुओं को गोल पहियों पर लगे रेगमार के पास ले जाया जाता है। मशीन के चलने पर जंक उतरने लगता है और धातु चमकने लगती है लेकिन इसमें उड़ता हुआ जंक और रेगमार का पाउडर सांस के जरिये अंदर जाता है और काम करने वाले सांस की तकलीफ और टीबी. का शिकार हो जाते हैं।
इससे फेफड़े का कैंसर भी हो सकता है। यह बीमारी इलेक्ट्रोप्लेटिंग की प्रक्रिया से जुड़े बाल मजदूरों को होती है। इस प्रक्रिया में बच्चों को बार-बार हानिकारक रसायनों के घोल में हाथ डालना पड़ता है। जिससे कई चर्मरोग भी हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त हानिकारक द्रव्य धीरे-धीरे शरीर के अंदर जाते रहते हैं और ये बेवक्त मौत का कारण बनते हैं। स्प्रे-पेंटिंग का काम करने वाले बाल मजदूरों का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। पेंटिंग में पेंट और थिनर का इस्तेमाल होता है। यही पदार्थ बीमारी का कारण बनते हैं, जो धीरे-धीरे शरीर में जाते रहते हैं और बच्चों को छाती में जलन, सांस लेने में कठिनाई और फेफड़ों का कैंसर जैसी बीमारियों हो जाती हैं। कई बच्चों में निमोनिया भी जाता है। बच्चे अक्सर सांस फूलने, बुखार, टी.बी. ब्रकाइटीस व निमोनिया की शिकायत करते हैं। गरीबी और कुपोषण से ग्रस्त बच्चे जल्दी ही ऐसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। लैंगिक भेदभाव के कारण यहाँ भी बालिका मजदूर ज्यादा प्रभावित होती है।
ताला उद्योग के बाल मजदूरों का आर्थिक शोषण भी होता है। एसेम्बलिंग यूनिट में प्रतिदिन 10 घंटे काम करने के बाद महीने में 25 रूपये मिलते है। पालिशिंग यूनिट में रोजाना 12-15 घंटे काम करने के बाद 15 रूपये की दिहाड़ी मिलती है और जबकि एक वयस्क को इसी काम के 25 रूपये मिलते हैं। काम सीखने के बाद बच्चों को मासिक वेतन 100 रूपये हो जाता हैं 10 से 15 वर्ष तक की आयु वर्ग के जो बच्चे प्रतिदिन 14 घंटे काम करते हैं। उन्हें 300 रूपये मासिक वेतन मिलता है। बच्चों से लगातार 20 से 36 घंटे काम लेने के बाद भी उन्हें ओवर आइम का भुगतान केवल 60 पैसे प्रति घंटे के हिसाब से किया जाता है। बाल मजदूरों के लिए कोई चिकिस्सा या भविष्य निधि जैसे सुविधा भी नहीं है।
बालिका मजदूर छोटी उत्पादन इकाइयों में भी काम करती है और घर पर भी। इस कारण वे बाल मजदूरों (लड़कों) की तुलना में शारीरिक रूप से ज्यादा कमजोर और अस्वस्थ भी रहती हैं। इससे उनका मानसिक विकास भी प्रभावित होता है।
ताला उद्योग की विशेषता यह है कि सारा कार्य कई चरणों में होता है और क़ानूनी भाषा में जिसे फैक्टरी कहा जाता है उसमें मशीनी कार्य किया जाता है जहाँ बाल मजदूर नहीं हैं। अधिकतर कार्य पीस रेट (उजारती भाव) पर कराया जाता है जिसे महिलाएं और बच्चे घरों में करते हैं। जाहिर है सारा बोझ लड़की पर पड़ता है।
दुनिया में कालीन निर्यात करने में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है। भारत ज्यादातर जर्मनी अमेरिका और ब्रिटेन को अपने कालीन निर्यात करता है। निःसंदेह यह उद्योग विदेशी मुद्रा कमाने का एक प्रमुख साधन है। लेकिन इस उद्योग की मोटी कमाई का ढांचा सीधे अमनावीय धरातल पर टिका है। यह अमनावीय धरातल है-बाल मजदूरी।
भारत में कालीन बनाने का ज्यादातर काम पूर्वी उत्तरप्रदेश, राजस्थान और जम्मू कश्मीर में होता है। दलाल लोग बिहार, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के दूरदराज के गाँवों में जाकर गरीब परिवारों के हाथ पर कभी 500 तो कभी 1000 रूपये रखकर उनके बच्चों को अच्छी नौकरी दिलाने का लालच देकर पूर्वी उत्तरप्रदेश की कालीन बुनने वाली खड्डीयों में धकेल देते हैं। यहीं से शुरू होता है उनका आर्थिक, शारीरिक शोषण का अंतहीन सिलसिला। इन बच्चों को लगातार काम करना पड़ता है। काम के बदले न तो उन्हें भरपेट रोटी मिलती है और न ही उचित मजदूरी। छुट्टी के नाम पर पिटाई के अमनावीय दौर शुरू हो जाते हैं। बनारस, मिर्जापुर, सोनभद्र के दूरदराज गाँवों में फलता-फूलता यह उद्योग कितना निर्दीय है। इसका बयान मजदूरों से सुनने को मिलता है जिन्हें समय-समय पर गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा छुड़ाया जाता रहा है। प्रवासी बाल मजदूरों में नेपाल की लड़कियाँ भी देखने को मिलती है।
पिछले कुछ वर्षों से कालीन का काम मध्यप्रदेश के मुरैना एवं पशिचमी राजस्थान के कुछ जिलों में प्रारंभ हुआ है। पश्चिम राजस्थान के जयपुर जिलों के पालड़ी खुर्द गाँव की आबादी अंदाजन 1500 है। गाँव में मीणा, राजपूत, ठाकुर सभी रहते हैं। लेकिन ज्यादातर लोग गरीब हैं। छोटी-छोटी लड़कियाँ भी कालीन बुनने का काम करती हैं। बोरी, सुमन, फुला, उर्मिला, मंगल न जाने कितनी लड़कियों के भाई तो सरकारी स्कूल में जाते हैं और ये सुबह से शाम तक खड्डीयों में धागे ऊपर-नीचे करती रहती हैं। राजस्थान देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहाँ कालीन बुनाई में अधिकांश बालिका मजदूर काम करती है।
बीते एक दशक में राजस्थान में कालीन उद्योग ने जबरदस्त करवट उद्योग ली है। राज्य में सिंचाई व्यवस्था की पतली हालत, मिर्जापुर-भदोही में कालीन उद्योग में बाल मजदूरी के खिलाफ घेरेबंदी, दिल्ली, आगरा, जयपुर के पर्यटन त्रिकोण और पेशेवर मोची समुदाय द्वारा पेशे को छोड़ना जैसे कारणों ने कालीन उद्योग को पनपने में मदद की। परिणामतः इस धंधे में हर साल दस प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है। देश को कालीन उद्योग से होने वाली अठारह हजार करोड़ की वार्षिक आय में राजस्थान की हिस्सेदारी अब लगभग 20 प्रतिशत तक की है। इस उद्योग से जुड़े लोगों की संख्या करीब २ लाख है। इसमें 70 प्रतिशत नाबालिग हैं और 14 साल से कम उम्र के बाल मजदूरों की संख्या लगभग 30 हजार है। इसमें लड़कियों की संख्या 80 प्रतिशत है। यहाँ लड़कों और लड़कियाँ का अनुपात मिर्जापुर-भदोही की तुलना में एकदम उल्टा है। वहाँ 90 प्रतिशत लड़कें और दस प्रतिशत लड़कियाँ हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पिछले कुछ सालो में जम्मू कश्मीर घाटी के कालीन उद्योग में भी बालिका मजदूर की संख्या में वृद्धि है। वहाँ अब कालीन बुनने में कुल बाल मजदूरों में बालिका मजदूरों की संख्या 60 प्रतिशत है।
कालीन उद्योग में उन्हें 6 महीने से एक वर्ष की अवधि का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस दौरान उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता। प्रशिक्षण के समय भी बाल मजदूर वयस्क मजदूरों की तरह पूरे समय तक काम करते हैं। इस उद्योग में बच्चे शुरुआती दिनों में सूती/रेशमी व ऊनी धागों के गोले बनाने का काम करते हैं। यूँ तो बाल मजदूर (लड़के) और बालिका मजदूर कालीन उद्योग की सभी प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं। लेकिन बालिका मजदूर ज्यादातर धागों के गोले बनाने एवं बुनने का काम करती हैं।
कार्य अनुभव के आधार पर उन्हें गांठें लगाने, बांधने, कालीनों की सफाई का काम दिया जाता है। यह सब काम करने के साथ-साथ बाल मजदूर कालीन बनाने का नक्शा पढ़ना भी सीख जाते हैं लिपि पढ़कर डिज़ाइन बनाने में सुविधा रहती हैं। कालीन बुनाई में बाल मजदूर करघों पर अकेले काम नहीं करते। उनके साथ एक उस्ताद करघे पर मौजूद रहता है और उन्हें कालीन बुनाई में डिज़ाइनों अथवा लिपि की बारीकियां समझता रहता है। बाल मजदूर जब लिपि पढ़ना सीख जाते हैं। तो वे सरल नमूने वाले कालीन बनाते हैं और धीरे-धीरे कठिन नमूने के तरफ बढ़ते जाते हैं। कालीन व्यवसायियों के अनुसार वे बाल मजदूरों के इसलिए प्राथमिकता देते हैं क्योंकि उनकी लोचदार और पैनी उँगलियों गांठ लगाने में खास सहायक सिद्ध होती है। माता-पिता भी इस मिथक में विश्वास करते हैं कि अगर बच्चे बचपन में अपनी लोचदार उँगलियाँ से कालीन बुनना या गांठे लगाने अथवा बैठने की विशेष मुद्रा नहीं सीखेंगे तो बाद में कठिनाई होगी। वे धंधे में पिछड़ जायेंगे और पिछड़ने का मतलब है बेरोजगारी। लेकिन अब अध्ययनों से यह सिद्ध हो गया है कि बच्चों को काम पर लगाने का मुख्य मकसद लाभ कमाना है।
गरीबी के चलते ये बाल मजदूर स्कूल नहीं जाते। अगर स्कूल जाते भी हैं तो माता-पिता दो तीन कक्षा के बाद ही स्कूल से निकालकर काम पर भेजना शुरू कर देते हैं। माता-पिता की गरीबी के साथ-साथ स्कूलों में अध्यापक वर्ग की उपेक्षा भी बच्चों के मन में पढ़ाई के प्रति अलगाव पैदा करती है। बहुत कम बच्चे पढ़ाई और काम एक साथ कर पाते हैं। जम्मू कश्मीर राज्य में कुछ बाल मजदूरों में 83.59 प्रतिशत स्कूल नहीं जाते। ऐसे बच्चों में 39.54 प्रतिशत बालक और 44 प्रतिशत बालिका मजदूर हैं। इसी राज्य में कालीन उद्योग से जुड़े लगभग 95 प्रतिशत माता-पिता यह जानते हैं कि उनके बच्चे करघों पर किन परिस्थितियों में काम करते है। उनके बच्चों में 5 से 10 रूपये तक की दिहाड़ी मिलती है। 60 प्रतिशत माता-पिता इस दिहाड़ी से संतुष्ट थे जबकि शेष के मुताबिक यह दिहाड़ी 15-20 रूपये के बीच होनी चाहिए क्योंकि महंगाई बराबर बढ़ रही है और बच्चों को लगातार अधिक समय तक काम करना पड़ता है।
कालीन उद्योग का ढांचा भी बाल मजदूरी को नियंत्रण देता है।। इसे घरेलू उद्योग का दर्जा प्राप्त है। इस उद्योग में ज्यादा पूंजी निवेश करने की जरूरत नहीं है। करघे ज्यादा महंगे नहीं होते। 300-400 रुपया खर्च करके की करघे खरीदे जा सकते हैं। अगर कारीगर करघा खरीदने की हालत में नहीं हैं तो ठेकेदार उसकी आर्थिक मदद करता है। ठेकदार ही कारीगर के ठिकाने से तैयार माल उठाता है/। लिहाजा कालीन बनाने और उन्हें बेचने में कारीगरों को अपनी जेब से बहुत कम पैसा लगाना पड़ता है। लेकिन इसका दुष्प्रभाव यह है कि कारीगरों की बढ़ती संख्या के कारण बाल मजदूरों की संख्या भी बढ़ रही है। माना जाता है कि एक वयस्क कारीगर पर दो या तीन बाल मजदूरों की दरकार होती है। माता-पिता अपने आस-पास के करघों पर अपने बच्चों को भेजने में नहीं हिचकिचाते। कारीगर बाल मजदूरों का आर्थिक शोषण करते हैं। 10-11 घंटे कम करवाते हैं और दिहाड़ी के नाम पर 10 से 15 रूपये रोजाना देते हैं यह दिहाड़ी उम्र व अनुभव के आधार पर तय होती है। अक्सर दिहाड़ी रोक दी जाती है ताकि बच्चा काम छोड़कर भाग न सके।
इस काम में बाल मजदूरों की आँखों पर जोर पड़ता है। ऑंखें कमजोर होनी शुरू हो जाती हैं। धीरे-धीरे आँखों में धुंधलापन छा जाता है। आँखों से पानी भी बहने लगता है। जब बाल मजदूर इस उद्योग में काम करना शुरू करते हैं तो उन्हें शारीरिक दर्द और खास तौर पर उंगलियों के दर्द की शिकायत रहती है। सिर का दर्द भी शुरू हो जाता है। पैरों के पंजों, हाथों की उँगलियों, टखनों और घुटनों से लगातार पतले धागों को लपेटते रहने से बच्चों में टयूमर विकसित होने लगता है। बाल मजदूरों के हाथों की उँगलियों पर गट्ठों के स्थायी निशान पड़ जाते हैं। अँधेरे बंद कमरों में करघों पर काम से फेफड़ों पर बुरा असर पाता हैं साँस लेने में तकलीफ होती है। कभी-कभी यह बीमारी दमा में बदल जाती है। जो बाल मजदूर सूत और ऊन के कालीन बनाते हैं उन्हें बीमारी जल्दी हो जाती है। सिल्क के कालीन बनाने वाले बच्चे इतना प्रभावित नहीं होते।
कारीगर, ठेकेदार, मालिक बाल मजदूरों को चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध नहीं कराते। पौष्टिक आहार न मिलने से बाल मजदूर बीमार हो जाते हैं और माता-पिता गरीबी के कारण उचित इलाज न करवा कर झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज करवाते हैं। बालिका मजदूरों के नसीब में तो चालू इलाज भी नहीं है जबकि वे अपनी सारी दिहाड़ी घर में ही देती हैं पश्चिमी राजस्थान के कई जिलों में जिनमें टोंक, जयपुर एवं अल्वर प्रमुख हैं पिछले एक दशक से कालीन उद्योग का केंद्र बनते जा रहे हैं। यहाँ कि विशेषता यह है कि जयपुर, आगरा एवं दिल्ली में इस माल को तैयार बाजार मिल जाता है। राजस्थान के जोधराला गाँव की फुलां रोजाना 10 रूपये कमाती है और अपने बूढ़े माता-पिता को दे देती है। फूलां की तरह उसकी सखियाँ भी यही करती है और उनके माता-पिता इस कमाई में से कुछ घर खर्च में लगाते हैं तो शेष बच्चियों के दहेज के लिए इकट्ठा करते हैं। बच्चियां स्कूल में जाने वाले अपने अपने भाइयों के खिलाफ विरोध प्रदर्शित न करें-इसका इलाज भी माता-पिता के पास हैं। वे महीने में एक बार उन्हें खुद बाजार ले जाते हैं यह किसी दूसरे के साथ भेज देते हैं ताकि वे अपने लिए झुमके, माला खरीद सकें और सखियों को दिखाकर खुश रहें। क्या बालिका मजदूरों के प्रति यह एक साजिश नहीं है। कालीन पर फूल, बेल बनाने वाली बालिका मजदूरों की अपनी जिन्दगी में कोई बहार नहीं है।
पचास वर्षीय शानो ने निर्माण कार्य से अपना नाता तब जोड़ा था, जब वह कुल सात-आठ साल की थी। पांच साल के पहले उसने काम छोड़ दिया था। इसके पीछे दो कारण थे-एक अब उसके शरीर में मजदूरी करने की ताकत नहीं बची थी। दूसरा उसके बेटे को ड्राइवर की नौकरी मिल गई थी और वह घर का खर्चा चला रहा था। शानो अभी अपनी पुरानी दुखभरी जिन्दगी भुला भी नहीं पाई कि एक दिन उसका बेटा एक दुर्घटना में अपनी जान गवां बैठा। बेटे की मौत के बाद उसी बूढ़ी औरत की जिन्दगी में सब कुछ मर गया। लेकिन आंसू और भूख चाहकर भी नहीं मर सके। शानो के सामने बहु और आठ वर्षीय पोती के पेट को भरने का सवाल उठा। वह सिर्फ मजदूरी करना ही जानती थी, जो अब बढ़ती उम्र के कारण उसके बलबूते का नहीं था। फिर वह अपनी शारीरिक ताकत को अनसुना कर अपने पुराने ठेकेदार के पास काम मांगने गई। ठेकेदार ने उस उम्रदराज औरत को हर लिहाज से नाकारा समझाकर काम देने से इंकार कर दिया। लेकिन ठेकेदार ने कहा कि वह उसकी बहु और पोती को काम देने को तैयार है। शानो अपनी पोती को पढ़ाना चाहती थी पर पापी पेट के आगे उसने हार मान ली।
यह दास्तान बेशक तमिलनाडु के एक गाँव में रहने वाली शानो की है। लेकिन चेहरे की झुर्रियां और टीस को किसी भी महिला निर्माण मजदूर के करीब जाकर पढ़ा जा सकता है। अर्थात कमोवेश सारे देश में निर्माण उद्योग से जुडी महिला मजदूरों की स्थिति एक सही हैं। उन्हें पुरुष की तुलना में हर लिहाज से कमजोर समझा जाता है। वे उस उद्योग में एक मजदूर के रूप में भर्ती होती है और उम्र के बढ़ने के साथ-साथ उनकी तक्क्की होने के बजाए काम से छंटनी का शिकार होना पड़ता है। उधर पुरुष मजदूर कुछ अर्से के बाद मिस्त्री बन जाता है यूनियन में भी औरतों के शोषण और दूसरे सवालों की महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता। परिणामतः काम के बंटवारे से लेकर मजदूरी का पैसा मिलने तक में भेद बराबर जारी है।
दरअसल इस भेदभाव की जड़े पुरानी है। इतिहास के शुरूआती पन्नों से पता चलता है कि प्राचीन काल में अधिकतर निर्माण कार्य पूजागृहों और सार्वजनिक स्थल तक ही सीमित था। इन जगहों पर राजगिरी, नक्काशी, चित्रकला और खुदाई का काम होता था। धर्म, सामाजिक आचार संहिता के कारण उक्त काम करने की इजाजत सिर्फ पुरुषों को ही थी। इस क्षेत्र में औरतों को सिर्फ पुरूष के मददगार के रूप में दाखिल होने के इजाजत दी गई। औरत के हिस्से सफाई, धुलाई और सामग्री को कार्यस्थल तक पहुँचाना। यहाँ औरतों को उक्त काम देने के पीछे मंशा औरत को पुरुष की सहायक, मददगार के रूप में प्रस्तुत करने की रही। इसे औरत की घरेलू कार्यसूची का एक विस्तृत रूप कहा। औरत के इस तरह काम करने को उसकी कमाने वाली क्षमता से नहीं जोड़ा। फिर प्राचीन काल में निर्माण गतिविधियों को बड़ा राजकीय सम्मान हासिल था। दक्ष मिस्त्री, चित्रकार, नक्काशकारों को राजकार्यकारिणी में शामिल किया जाता था। इस तरह की गतिविधियों में औरत की शिरकत जीरो थी। चित्र और लड़की के काम में गणित किया जाता था। राजगिरी और नक्काशी के काम में न सिर्फ गणित का ज्ञान बल्कि ज्योतिष और खगोल विद्या की पकड़ जरुरी थी। गणित ज्योतिष और खगोल विद्या जैसे विषय किताब सम्बन्धित होने के कारण सिर्फ पुरुषों तक ही सिमटे हुए थे। प्राचीन काल में लड़कियों को इन विषयों से दूर रखा गया। आज आधुनिक युग में चाहे लड़कियाँ विज्ञान, गणित पढ़ रही हैं लेकिन लड़कों की तुलना में इनकी संख्या काफी कम है। फिर ग्रामीण इलाकों में तो और भी कम। महिला निर्माण मजदूर इन्हीं ग्रामीण इलाकों से आती हैं यही कारण हैं कि आज भी उन्हें सिर पर ईंट उठाने, ईंट तोड़ने और मशाला बनाने वाला काम दिया जाता है। उनका नाम अकुशल श्रम की सूची में लिखा जाता है।
चौंकाने वाला तथ्य यह है कि निर्माण उद्योग में एक अकुशल पुरुष को अकुशल औरत की तुलना में ज्यादा इज्जत बख्शी जाती है। कारण, अकुशल पुरुष धीरे-धीरे अपने पुरुष साथियों को साथ खड़ा होकर ईंचटेप पकड़कर जमा-जोड़ घटाना, लम्बाई-मोटाई-गहराई नापना सीख जाता है क्योंकि बुजर्ग पुरुष, पुरुषों को ही यह सब सिखने के लिए अपने पास बुलाते हैं। एक अकुशल महिला मजदूर यह सब किससे सीखे। पुरुष साथी उसे सिखाते नहीं और उसकी सभी साथिनें उसकी तरह अनपढ़। हकीकत यह है कि पुरुष कौम यह नहीं चाहती कि उसकी तरह औरत को भी मिस्त्री उपठेकेदार या ठेकदार या ठेकेदार का दर्जा मिले। इसलिए सदियों बाद भी आज औरत ईंट उठाती, पत्थर तोड़ती ही नजर आयगी इधर कई जगह राज्य सरकारों ने महिला मजदूरों को मिस्त्री का प्रशिक्षण दिया है। उन महिलाओं ने काम में सफलता भी हासिल की लेकिन यह प्रशिक्षण बहुत गिनी चुनी महिलाओं तक ही सीमित रहा। सरकार का यह रवैया समाज में अभी तक यह धारणा बनाने में नाकामयाब रहा कि महिलाओं भी पुरुषों की तरह की एक सफल मिस्त्री, ठेकेदार साबित हो सकती है। निर्माण उद्योग में पुरुष मजदूरों के लिए तरक्की के रास्ते चारों तरफ से खुले हुए है जबकि महिला मजदूर की बुरी तरह से घेरेबंदी की गई है।
इन मजदूरियों की त्रासदी यह है कि शोषण का चक्र सिर्फ आर्थिक स्तर पर ही नहीं रुक जाता। बल्कि इन सबकी एक भयावह कड़ी यौन शोषण भी है। ठेकेदार इन्हें आधी दिहाड़ी व ज्यादा काम का लालच देकर कई बार दूरदराज इलाकों में ले जाते हैं। जहाँ उनके (महिलाओं के ) परिचित मर्द नहीं होते। वहाँ उनका यौन शोषण होता है। यौन शोषण की ज्यादा शिकार बालिका मजदूर होती है।’चार साल पहले हिसार (हरियाणा) में सड़क पर काम करने वाली एक 13-14 वर्षीय मजदूर बालिका का कुछ शरारती तत्वों ने अपहरण कर लिया। निसहाय बाप की उन शैतानों ने एक न सुनी। अंत में राजनैतिक हस्तक्षेप से लड़की अपने घर लौटी तो उसका मानसिक संतुलन हिल चूका था। उसे जिदगी की बजाय मौत अच्छी लगने लगी थीं। उसने खुदकुशी की कोशिश भी की। सफल न होने पर पागल सी हो गई। अपने बच्चों की हालत देखकर उस मजदूर परिवार ने अपनी रोजीरोटी को ठुकरा कर अपनी रेतीली धरती की राह पकड़ ली। निर्माण उद्योग में लगे कुल मजदूरों की संख्या आंकना कठिन है लेकिन ऐसा माना जाता है कि कुल 50 लाख मजदूर इसमें मजदूरों मी संख्या इनमें काफी है।
रत्न पालिश उद्योग बहुत पुराना उद्योग है। भारत में रत्न पालिश का काम जयपुर, मुबई, हैदराबाद, त्रिचुर. नैलोर, कटक और कलकत्ता में होता है। लेकिन जयपुर का स्थान पहला है। रंगीन पत्थरों की पालिश का 95 प्रतिशत काम इस पिंक सिटी में होता है। एक बात और गौरतलब है कि जयपुर में पालिश होने वाले रत्न सिर्फ आभूषणों के लिए इस्तेमाल नहीं होते बल्कि सजावट के उद्देश्य से इन पर खुदाई भी की जाती है।
जयपुर का रत्न उद्योग अन्तराष्ट्रीय बाजार में अपनी विशेष पहचान रखता है। 1727 ई. में महाराजा जयसिंह ने दिल्ली, आगरा और बनारस से जौहरी जयपुर बुलाय और रत्न उद्योग की स्थापना की। बेशक उस समय रत्नों का प्रयोग राजा, सरदार, मंत्री और अति आमिर वर्ग ही करता था। महाराजा जयसिंह ने इस अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की कल्पना भी नहीं की होगी। रत्न विशेषज्ञ शेखर विशिष्ट के अनुसार-संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, हांगकांग, इटली, जापान, कुवैत, सऊदी अरब, सिंगापुर, स्विटजरलैंड, इंगलैंड तथा जर्मनी आदि देश भारतीय रत्नों के मुख्य ग्राहक हैं संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय पन्नों की सबसे अधिक खपत है। रत्नों से भारत को प्रतिवर्ष लगभग 1400 करोड़ रुपयों की आय होती है।
जयपुर के रत्न पालिश उद्योग में कम से कम 60000 श्रमिक हैं। इनमें से 85प्रतिशत (51000) मुस्लिम और 15 प्रतिशत (900) हिन्दू श्रमिक हैं। मुस्लिम मजदूरों में 25 प्रतिशत (12500) मुस्लिम महिलाएं एवं बालिकाएं हैं। गुरुपद स्वामी कमेटी रिपोर्ट (1979) के मुताबिक वहाँ 13 हजार मुस्लिम बच्चे थे जो कि कुल मुस्लिम श्रम शक्ति का 25 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। इसी तरह हिन्दू बच्चों की संख्या 600 है जो कि कुल हिन्दू श्रमशक्ति का 7 प्रतिशत हिस्सा है। अनुमान है कि कुल मिलाकर 14 साल से कम आयु को 13 हजार बच्चे इस रत्न उद्योग में मजदुरी कर रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय रत्नों की बढ़ती हुई मांग रत्न पालिश उद्योग में बाल श्रमिक की वृद्धि का मुख्य कारण है। अक्सर इस उद्योग में रत्न काटने, पालिश और उन्हें आकर देने का काम बाल मजदूरों को कच्चे और चिरे पत्थरों को घड़ी पर चिपकाने, रत्नों पर अंतिम रूप से आक्साइड की पालिश करने के काम दिया जाता है। इस उद्योग में बाचों का आर्थिक शोषण हर स्तर पर होता है। नये बच्चे को कई सालों तक कोई मजदूरी नहीं दी जाती। मजदूरी न देने के पीछे यह प्रवृत्ति प्रबल है कि बच्चे रत्न निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। त्यौहार व दूसरे मौकों पर उन्हें कभीकभार 15 रूपये या इससे कम राशि इनाम के रूप में दी जाती है।
बच्चों को उनकी मजदूरी का भुगतान उनकी योग्यता, काम के प्रति रूचि अथवा कार्य क्षमता के आधार पर किया जाता है। बच्चों को काम दिलाने वाले उस्ताद या ठेकेदार एक बच्चे से हर महीने 150 रूपये से 200 रूपये तक कमा सकते हैं। दो साल बाद जब बच्चे कम से कम 250 से 300 रूपये तक का काम करने लगते हैं तब उन्हें 50 रूपये महीना दिया जाता है। 14-15 आयु वर्ग के बच्चे रत्न पालिश में कुशलता हासिल कर लेते हैं और 150-200 रूपये कमाने लगते हैं। वयस्क मजदूर को इसी काम के 500-600 रूपये दिए जाते हैं।
इस उद्योग में काम करने वाले बच्चों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में पूर्णकालिक बच्चे आते हैं ये बच्चे सुबह 8 बजे से सांय 6 बजे तक काम करते हैं ऐसे बच्चे बहुत ही गरीब, मजदूरी करने वाले परिवारों के होते हैं। दूसरे वर्ग में निश्चित आय वाले परिवारों के बच्चे आते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता दर्जी, नाई या निचली सरकारी नौकरी में होते हैं। ये बच्चे स्कूल जाते हैं और स्कूल के बाद रोजाना अंदाजन तीन-चार घंटें यह काम करते हैं । इस उद्योग से जुड़े कुल बाल मजदूरों में से 50 प्रतिशत अनपढ़ हैं। जो बच्चे स्कूलों में पढ़ते, लिखते हैं और स्कूल के बाद कोई काम नहीं करते वे शिल्पियों और रत्न कारीगरों के बच्चे हैं। ऐसा नहीं कि गरीब माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते लेकिन सच्चाई यह भी है कि उनके पास पढ़ाने के लिए पैसा ही नहीं है। खासतौर पर बालिका मजदूर जिससे प्रभावित होती हैं। इसलिए ऐसे परिवारों के बच्चे यहाँ पूर्णकालिक बाल मजदूरी करते हैं। काम करने वाले 80 प्रतिशत बच्चे रिक्सा चालकों, बेकरी श्रमिकों, नाइयों आदि के बच्चे हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार रत्नपालिश उद्योग में कार्यरत बाल मजदूरों में से तीस प्रतिशत तपेदिक की बीमारी के शिकार हैं। इसकी वजह कार्यस्थल पर भीड़ तथा कुपोषण है। रत्न उद्योग में रत्नों पर पालिश करने के लिए अल्पु यूनियन आटसाइड सीरियम आकाश, क्रोनिक आक्साइड, स्यनिक आक्साइड आदि का इस्तेमाल किया जाता है।
अधिकतर बाल मजदूर शारीरिक दर्द की शिकायत करते हैं। उनके बाएं घुटने और दाहिने कन्धों में दर्द रहता है। डॉक्टरों की राय में इस दर्द का कारण कार्यस्थल का छोटा होना है। मशीन इस तरह से बनायीं गयी है कि बच्चों को एक ही स्थिति में अधिक देर बैठे रहना पड़ता है। पालिश करने वाले बच्चों की आँखों पर दबाव पड़ने को आम शिकायत हैं। डिस्क के सम्पर्क के आने से उनकी उँगलियों पर खापेंचे पड़ जाती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से बालिका मजदूरों की स्थिति और भी ख़राब है। परिवार की उपेक्षित इकाई होने के कारण उन्हें पौष्टिक आहार नहीं मिलता और ऐसे में उद्योगगत बीमारियों उन्हें ज्यादा कमजोर व अस्वस्थ्य बना देती है। माता-पिता उन्हें अस्पताल भी नहीं ले जाते। अक्सर काम से वापस आने के बाद उन्हें घरेलू कामों की में भी हाथ बटाना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि रत्न पालिश एवं हीरे जवारात के उद्योग से भारत ३२ हजार करोड़ की विदेशी मुद्रा कामता है लेकिन इसका एक प्रतिशत भी बाल मजदूरों की स्वास्थ्य रक्षा एवं पुनर्वास पर खर्च नहीं होता । इसका प्रमुख कारण इन बच्चों का अदृश्य होना है।
स्रोत:- जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची।
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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