भाषा हमारे भावों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। हमारे अस्तित्व को प्रकट करने में भाषा सबल है। किसी भी रचनका के कार्य भाषा के बिना योगदान होता है। भाषा के इसकी महत्व को ध्यान में रखते हुए मानव अधिकार आयोग ने लोक कल्याण एंव मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक कार्यक्रम शुरू किये हैं तथा हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओँ के माध्यम से जन-जन तक अधिकारों की चेतना पहुंचाने में प्रयासरत है। इसमें कोई अपवाद नहीं है कि अंग्रेजी आज व्यापार एवं विज्ञान की प्रमुख भाषा है परन्तु भारतीय समाज के लिए व्यवहार की भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंदी है। अतः हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अध्यापकों एवं विद्धानों को हिंदी सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम से जुड़ना होगा तथा जन-साधारण की भाषा को ज्ञान के प्रसार का माध्यम बनना होगा।
भारत वर्ष अपने इतिहास के विशिष्ट दौर से गुजर रहा है। राष्ट्रीय जीवन में राजनितिक, सामजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में क्रन्तिकारी परिवर्तन आ रहे हैं। सदियों पुरानी रूढ़ियों और विसंगतियों को नष्ट कर नई अवधारणाएं स्थापित हो रही है। इस नई दुनिया में यह कोशिश भी जारी है कि हम अपनी सभ्यता और संस्कृति के उन मूल तत्वों को न खो दें जो शताब्दियों से विश्व में हमारी एक अनूठी पहचान का आधार रहे हैं।
भाषा एक अदभुत रचना है। यह रचना इतनी सबल जाती है कि रचनाकार उस पर हर काम के लिए निर्भर हो जाता है। भाषा से अलग उसकी कोई पहचान ही मुशिकल हो जाती है। उसकी अस्मिता, उसका अस्तित्व भी भाषा पर निर्भर करता है। लेकिन, भाषा और अस्मिता का रिश्ता जितना सहज है, उतना ही जटिल भी है, क्योंकि भाषा एक नहीं है। हम अनेक भाषाओं का प्रयोग करते हैं। उनके बोलने वालों की आर्थिक, सामजिक, राजनैतिक हैसियत भी अलग-अलग होती अहि। हमारा विश्व बहुभाषिक है। विभिन्न देशों में अनेक भाषाओँ बोली जाती है और उनका संबल पाकर देश और समाज अपने विकास या ह्रास की ओर अग्रसर होते हैं। भाषा और राष्ट्रीय विकास कितने जुड़े हैं यह अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान के साथ अधिकांशतः अलग-थलग रहे चीन को भी जोड़ लें तो स्पष्ट हो जाएगा। भाषा का जैसा बहुभाषी रूप भारत में है शायद ही कहीं अन्यंत्र मिले।
भाषा उन्नति का मूल है, इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए, कारण कि हमारे सारे प्रयास इसी के माध्यम से होते है, इसी से जुड़े होते हैं। हम भाषा में ही जीते हैं। भाषा हमारे व्यवहार में घुली-मिली है।
सुभाषचंद्र बोस ने राष्ट्रीय एकता के सन्दर्भ में हिंदी के महत्व के बारे में कहा था-
प्रांतीय इर्ष्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिंदी प्रसार से मिलेगी, उतनी दूसरी चीज से नहीं।
इसी सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का यह कथन बहुत ही समीचीन है-
आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल कमल के समान हिया, जिसका एक-एक दल एक-एक प्रांतीय भाषा और उसकी साहित्य संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा ही नष्ट हो जाएगी। हम चाहते हैं कि भारत की सारी प्रांतीय बोलियाँ, जिनमें सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने-आप घर में (प्रान्त में) रानी बन कर रहें और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्य मणि हिंदी भारत-भारती होकर विराजती रहे।
यहाँ तक कि, विदेशी विद्वानों ने भी, हिंदी की जरूरत को महसुस किया था। मैं आप का ध्यान फ्रेच विद्वान गार्सा दा तासी केशब्दों को ओर आकर्षित करना चाहूँगा। उन्होंने 18वीं शताब्दी में मध्य में यह बात कही थी-
मैंने तहरीर के लिए यह जबान अखतियार की है, जो हिंदुस्तान के कई सूबों की जबान है। क्योंकि, इसे आम लोग बखूबी समझते हैं और बड़े तबके के लोग भी पंसद करते हैं।
हिंदी के महत्व के सन्दर्भ में एक अन्य विदेशी विद्वान प्रो. विव्हन्सकी का यह उद्धरण बहुत ही प्रासंगिक है-
हमारी अस्मिता प्रकट रूप में, भाषा में प्रतिबम्बित होती है, उसी से बनती बिगडती है। भाषाओँ के साथ भेदभाव बरतने के कारण कुछ समूह समाज के केंद्र में और बहुतेरे सीमा पर चले जाते हैं। ऐसा होना, महज आंकड़ों का खेल न होकर, जिन्दगी का आंकड़ा होता है। उसका जीवन की गुणवत्ता से सीधा रिश्ता होता है। भारत के विभिन्न, भाषा-भाषी समूहों की आर्थिक स्थिति, समाज में वर्चस्व, राजनितिक हिस्सेदारी अरु उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा का आंकड़ा, स्पष्टतः भाषा और अस्मिता के बीच, गहरे रिश्ते को दिखता है। भाषा की शक्ति और उसके प्रयोक्ता समाज की शक्ति के बीच सीधा रिश्ता है। भाषा स्वीकृति और समाज की स्वीकृति साथ-साथ चलती है। दी इसके अर्थ का विस्तार करें तो यह प्रकट होता है कि भाषायी असमानता आर्थिक असमानता की जननी है और पोषक भी। थोड़ा और गौर करें तो यह असमानता बहुतों को मनुष्यता के अधिकार से भी वंचित कर देती है तो कुछ को मालामाल। कष्ट की बात यह है कि ऐसी असमानता स्वदेश में ही है और अब भी एक बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय समाज में अपने मूल मानव अधिकारों से वंचित है।
हिंदी एक जीवंत भाषा है। इसमें बड़ी सुरम्यता और उदारता है। हिंदी के यहीं तो वे गुण हैं जो इसे दूसरी भाषाओं के शब्दों और रूपों को आत्मसात करने की असीम क्षमता प्रदान करते हैं। हिंदी हमें दक्षिण एशिया के देशों में ही नहीं बल्कि पूरे एशिया और मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, ट्रिनीडाड व टोबगो जैसे अन्य देशों के साथ भी जोड़ती है।
आज के युग में यत्र-तत्रसर्वत्र उदारवाद, बाजरा वाद और वैश्विकरण (ग्लोबलाइजेशन) का बोलबाला है। हमारा देश ही नहीं, हमारी भाषा हिंदी भी इससे अछूती नहीं है। इसे रहना भी नहीं चाहिए। आए दिन समाचार पत्रों और टीवी के कार्यक्रमों में, विशेष रूप से इनके विज्ञापनों में, बच्चो के लिए प्रसारित किए जा रहे मनोरंजक और शैक्षिक कार्यों में इसके दर्शन हो रहे हैं। विश्वास कीजिए, वैश्विक वाणिज्यिकरण के फलस्वरूप हिंदी का महत्व किसी तरह से कम होने वाला नहीं है। विश्व स्तर पर फैलेगी, फैल रही। अभी छः महीने पहले हुआ विश्व हिंदी दिवस, तथा हैदराबाद में संपन्न प्रवासी भारतीयों का सम्मेलन इसका मूर्त गवाह है। प्रवासी भारतीयों के सन्दर्भ में एक विद्वान का निम्न कथन कितना प्रासंगिक है, जरा गौर करें-
जिस तरह हिमालय भारत माता का अडिग प्रहरी है, उसी तरह गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस देश-विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों की भाषा, धर्म, संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करने वाला सजग प्रहरी है।
इन आयोजनों के माध्यम से वैशिवक हिंदी का स्वरुप और उसकी व्यावसायिक, वाणिज्यिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक उपलब्धियाँ उजागर हुई है और हर वर्ष 10 जनवरी को अधिकारिक उदघटित होती रहेंगी। विश्व में हिंदी के प्रसार-प्रसार में विदेशी हिंदी विद्वानों, साहित्यकारों, भाषा प्रेमियों आदि के योगदान की तुलना में कसी तरह से कम आँका नहीं जाना चाहिए। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने और हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुष्पित और पल्लवित करने में सबका समान योगदान सरहानीय है। वह दिन नहीं जब संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर हिंदी को मान्यता मिलेगी।
मानवाधिकार आयोग ने लोक कल्याण एवं मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण की अनेक योजनाओं और कार्यक्रमों को शुरू किया है। जहाँ एक ओर आयोग ने अपने कार्यक्रमों के माध्यम से संपूर्ण भारत में सामजिक न्याय की स्थापना को पुष्ट किया है, वहीं दूसरी ओर निकट भविष्य में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से मानवाधिकार सामग्री प्रस्तुत कर जन-जन तक इन अधिकारों की चेतना पहुँचाने का व्रत भी लिया है।
आयोग ने अनुभव किया कि चूँकि भारत की अधिसंख्य जनता मूलतः गैर-अंग्रेजीदां है और इस तरह केवल अंग्रेजी में ही मावन अधिकारों की जानकारी उपलब्ध रहना नाकाफी होगा। कहना न होगा कि ज्ञान के बिना मनुष्य बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करता है और अनेक जायज लोभो और हकों से भी हाथ धो बैठता है। भाषा के आधार पर अवसरों की असमानता भारतीय समाज का नकारात्मक पक्ष है। नौकरियों, सामजिक-आर्थिक भागीदारी और प्रगति का न्योता अंग्रेजी परस्तों को अधिक और अंग्रजी के प्रसाद से वंचित व्यक्तियों को कम मिलता है। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ को बोलने वाले अनपढ़ों पर तो दुहरी मार है। इन सब कठिनाइयों के मद्देनजर आयोग ने हिंदी में और क्रमशः अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से मानवाधिकार विषयक साहित्य को उपलब्ध कराने की व्यापक चेष्टा शुरू की। आयोग ने हिंदी और भारतीय भाषाओँ में माध्यम से देश की सांस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता द्वारा देश को एकसूत्र में जोड़ने की पहल शुरू की है। इस दृष्टि से आयोग ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित मानवाधिकार से संबंधित अंतरराष्ट्रीय प्रपत्रों के संकलनों का हिंदी रूपान्तर प्रस्तुत किया है जिससे मानवाधिकार के क्षेत्र में हिंदी में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं स्वैच्छिक संगठनों और वकालत के पेशे से जुड़े व्यक्तियों के साथ-साथ आम आदमी को भी इन दस्तावेजों के बारे में जरूरी जानकारी मिल सके। लगभग 1,600 पृष्ठों के तीन खंड वाले ये अंतरराष्ट्रीय प्रपत्र मानवाधिकारों के ऐसे पक्षों का समावेश करते हैं जो आज के उभरते अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों और भूमंडलीकरण की ओर बढ़ते व्यापक समाज की समस्याओं को संबोधित करते हैं।
वैसे तो ये अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र मूल रूप से अंग्रेजी में भी नहीं है और ये तो फ्रांसीसी, स्पेनी, चीनी व रुसी भाषाओँ से अंग्रेजी में अनुदित है। इन अंतरराष्ट्रीय प्रपत्रों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कराने में आयोग ने वैश्विक धरातल पर एक नई पहल की है जिससे न केवल अंतरराष्ट्रीय क्षितिज में हिंदी की प्रतिष्ठा एवं उसके बाद कद को ऊँचा करने में हमें मदद मिलेगी बल्कि उसके सामर्थ्य की पुष्टि द्वारा संयुक्त राष्ट्र में उसकी दावेदारी को भी बल मिलेगा।
आयोग ने विशेष रूप से उल्लेखनीय एक और भी प्रयास किया है। आयोग के पास देश के कोने-कोने से आवेदन पत्र, शिकायतें और अनुरोध आते है जो आम आदमी की भाषा में होते हैं न कि कानूनी भाषा में। उनकी शब्दावली तकनीकी कम, पर जीवन में प्रयुक्त शब्दों को होती है। भाषा यदि संचार का माध्यम है तो वह जड़ माध्यम न होकर गतिशील माध्यम है। उसमें समय के साथ-साथ बदलाव भी आते रहते हैं। यह सोचकर आयोग ने निश्चय किया कि आम आदमी कीशब्दावली को भी देखा जाए और मानवाधिकार से जूड़ी अभिव्क्तियों को स्वीकार किया जाए। आयोग ने इस कार्य में रूचि ली और हमें प्रसन्नता है कि इस तरह आयोग में प्राप्त शिकायतों से जुडी सामग्री का अध्ययन कर 14000 से कुछ अधिक शब्द चुने गए जो भोजपुरी, मगही, अंगिका, राजस्थानी, मालवी, हरियाणवी जैसे अंचलों की बोलोयों में प्रयुक्त हैं। इन शब्दों के अंग्रेजी पर्याप्त सुनिश्चित किये गये और अनुप्रयुक्त मानवाधिकारशब्दावली शीर्षक से उसका प्रकाशन किया गया।
आयोग हिंदी में मानवाधिकार’ नई दिशाएं नाम से एक वार्षिक पत्रिका भी कई वर्षों से निकाल रहा है। इसमें प्रकाशित सामग्री न केवल शोधपरक, सूचनाप्रद एवं महत्वपूर्ण है अपितु इसे स्तरीय बनाने में समाजशास्त्रियों, प्रशासन एवं पुलिस से जुड़े हुए वरिष्ठ अधिकारियों , मनोवैज्ञानिकों तथा मानवाधिकार से जुड़े कार्यकर्त्ताओं का भी निरंतर सहयोग मिल रहा है। इस पत्रिका के द्वारा आयोग न केवल भारतीय पारस्परिक समाज में मानवधिकारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं ज्वलंत प्रश्नों पर भी विचार किया जा रहा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकार एक क्षेत्र में हिंदी की उपस्थिति गौरतलब है।
आज जहाँ सभी देश एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं और व्यापार, सामाजिक, शैक्षिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों मने सहयोग के अवसर बढ़ रहे हैं वहीं विभिन्न देशों में बीच आपसी रिश्तों में ना कि पेचीदगियां भी पैदा हो रही है। अभी ताजा घटना है- हैदराबाद के सूर्यनारायण की अफगानिस्तान में हत्या, जो स्पष्टतः मानवाधिकार के हनन के दायरे में आती है। तात्पर्य यह की मानवाधिकारों की अंतरराष्ट्रीय परिधि स्थानीय और व्यापक दोनों ही दृष्टियों से हमें समेटती हैं।
यह सच है कि वैश्वीकरण के इस मौजूदा दौर में अमेरका और बिट्रेन का अंग्रेजी अश्वमेघ प्रभाव बहुत तेजी से दुनिया को अपने नेटवर्क में समेट रहा है, पर हमें इस बदलती दुनिया में अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए नियमों –कानूनों को ठीक से जानना आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में अंग्रेजी के अलावा जिन भाषाओं, अर्थात स्पेनी, चीनी, रुसी, फ्रासीसी अरु अरबी को मान्यता प्राप्त है उसमें आज भी हिंदी भाषा शामिल नहीं है। ऐसा तब है जब आज हिंदी दुनिया की पहली तीन सबसे बड़ी जनसख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषाओँ में से एक है। स्पष्ट रूप से यह राजनैतिक वर्चस्व का संकेत है। तथ्य यह है कि बोलने वालों की दृष्टि से चीनी भाषा के बाद हिंदी का विश्व में दूसरा स्थान है। कुछ शोधार्थियों ने तो इसे पहला स्थान भी दिया है। दूसरा तथ्य यह है कि भारतीय सन्दर्भ में अंग्रेजी की सम्यक, जानकारी रखने वालों का प्रतिशत ज्यादा नहीं है। ऐसी परिस्थिति में हमारा यह कर्तव्य बनता है है कि हम मानवाधिकारों की बातें यहाँ की जनता की भाषा में, उनकी मातृभाषा में जन-जन तक पहुंचाएं।
अपनी मातृभाषा में ह्रदय बोलता है और उसमें काया और आत्मा दोनों का निवास रहता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होने के नाते भारत की जो जिम्मेदारियां बनती हैं उनका अनुपालन ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना में मूल बिंदु हैं । भारतीय लोकतन्त्र की सक्रिय संस्थाओं में से एक के रूप में इसने अपने पहचान स्थापना के समय से ही बनाए रखी है और इसके सतर्क हस्तक्षेप के अनेक उदाहरण समकालीन इतिहास में मौजूदा हैं। इस नाते इसे एक ऐसे सजग प्रहरी की भूमिका में देखा जाता है जिसकी उपेक्षा भारतीय व्यवस्था का कोई हिस्सा नहीं कर सकता।
किन्तु सजगता और सतर्कता केवल उन संस्थाओं के ही आवश्यक गुण नहीं हैं जिन्हें लोकतांत्रिक कार्यकलाप की निगरानी करनी पड़ती है। यह भी उतना ही जरूरी है कि भारत के साधारण जन समूह की भागीदारी सम्पूर्ण व्यवस्था के सभी अंगों से तथा उनकी परिचालन शैली से वह परिचित हो। इसके लिए कागर उपाय यही है कि भारतीय भाषाओँ में लोकतांत्रिक मान्यताओं को प्रतिष्ठित करने वाला साहित्य सुगमता से उपलब्ध हो ताकि लोग जान सकें कि वे जिन अनुशासन के अंगीभूत होकर जीवन जी रहे हैं, उनका आधार क्या है?
यह सच है कि आज अंग्रजी न केवल व्यापार और विज्ञान की एक प्रमुख भाषा है अपितु वर्तमान राजनैतिक सामाजिक परिदृश्य के सभी क्षेत्रों में उसका अधिकार है। प्रशासन और अंतरराष्ट्रीय संबधों के सभी विमर्श मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ही होते हैं। विधि व्यवस्था, अधिकार और कर्तव्य, मानव और प्रक्रति के सम्बन्ध, मुख्यतः अंग्रेजी में सोचे और गढ़े जाते है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। चूँकि अंग्रेजी राज भारत में लंबे अरसे तक रहा जिसके दौरान शिक्षाव्यवस्था में प्रायः सर्वत्र अग्रेजी की ही प्रधानता रही। इसलिए भारतीय चिंतन प्रणाली में कुछ मुलभुत परिवर्तन हुए जिनका अभिलक्षण यह है कि सारा कामकाज और विचार-विमर्श अग्रेजी के माध्यम हो, व्यापक भारतीय समाज के लिए व्यवहार की भाषा अंग्रेजी नहीं है। इसलिए भारतीय समाज के बारे में भारतीय समाज से बातचीत करने के लिए भारतीय भाषाओं का कोई विकल्प नहीं है।
किसी भी भाषा के साहित्य का परस्पर आदानप्रदान करने में अनुवाद की विशेष भूमिका रहती है। इसके द्वारा जहाँ हम विश्व के सम्पूर्ण साहित्य से परिचित होते है वहीं दूसरी ओर उसकी सभ्यता, संस्कृति, आचार एवं व्यवहार से भी अपने को जोड़ने में सहजता का अनुभव करते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि अनुवाद के माध्यम से ही हमारे देश का संपूर्ण वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक एवं धर्मों के उत्कृष्ट ग्रन्थों के साहित्य को विश्व के कोने-कोने तक पहूँचाया जा सका। उसी प्रकार हम भी विश्व की अनेक भाषाओँ के उत्कृष्ट साहित्य से न केवल परिचित हुए अपितु वहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगिलिक स्थापनाओं से भी हमारा रिश्ता मजबूत हुआ। आशा करते हैं कि अनुवास के स्वर एक बार फिर हम संपूर्ण विश्व में समामासिक संस्कृति को बढ़ावा देने में सफल हो सकेंगे। हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता से भी देश-विदेश में सरल और सरस हिंदी का प्रसार हो रहा है। अतः हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी के अध्यापकों और विद्वानों को स्वयं को हिंदी सिनेमा के सशक्त माध्यम से जोड़ना होगा।
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है। इसलिए जन साधारण की भाषा को सामान्य भावों और स्थापित परम्परा की कल्पनाओं के अलावा इस नये ज्ञान के प्रसार का माध्यम भी बनाना होता। इससे जहाँ एक ओर हम भाषायी मानकीकरण की ओर उन्मुख होंगे वहीं दूसरी ओर शब्दों के प्रयोग में एकरूपता के भी दर्शन होंगे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आज के सन्दर्भ में भाषा को मानकीकृत रूप प्रदान करने में मिडिया ने अहम भूमिका निभाई है। यदि हिंदी को विश्व की एक प्रमुख भाषा बनाना है तो इसे आधुनिक सूचना प्रौद्योगिक के साथ-साथ मिडिया से भी दोस्ताना संबध बनाना होगा। लेकिन हिंदी से लगाव के अर्थ यह नहीं कि दूसरी भाषा का विरोध किया जाए, चाहे वह विदेशी भाषा ही क्यों न हो। हमें जो विदेशी भाषा सीखी है, उसे भुलाना नहीं चाहिए बल्कि उस भाषा के अपने ज्ञान को और बढ़ाना चाहिए। विश्वव्यापी के इस युग में विदेशी भाषा का ज्ञान बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा।
ज्ञात इतिहास की प्रथम रचना ऋग्वेद से एक उद्धरण मैं आप सभी विद्वानों के बीच बांटना चाहता हूँ जिसमें कहा गया है-
ऋग्वेद में भी मानव समानता, प्रतिष्ठा, भाईचारा तथा सम्पन्नता प्राप्त करने के लिए समवेत प्रयास की आवश्यकता को प्रबुद्ध समाज का जीवन मूल्य बनाया है। यहाँ कोई श्रेष्ठ अथवा निम्न नहीं है, सभी भाई-भाई हैं और वे सभी बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के लिए मिलकर कार्य करें।
यह आशा की जानी चाहिए कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में हिंदी की यह भूमिका दिन पर दिन और प्रभावी होगी तथा भारतीय भाषाओँ और भारतीय परिवेश में किया गया चिन्तन वैश्विक धरातल पर मील का पत्थर साबित होगा। साथ ही इस कोशिश से हम सम्पूर्ण विश्व को अगली पीढ़ियों के लिए भाषायी वातावरण के अनुकूलन बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं।
लेखन : श्री पी.सी.शर्मा
स्त्रोत : मानव अधिकार आयोग, भारत
अंतिम बार संशोधित : 3/16/2023
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