बिरजिया आदिम जनजाति कमोवेश आज भी जंगल से उपलब्ध प्राकृतिक उत्पादों पर ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। बिरजिया आज भी दूर घने जंगलों में निवास करते हैं। ये अपने झोपड़ियाँ ऊँची पहाड़ियों के उभरे भागों पर बनाते हैं। इनके आवास स्थान बहुत कम परिवारों के होते हैं। 1941 की जनगणना में बिहार में इनकी आबादी 2,075 दर्ज की गई है। इनकी आबादी में 1961 (4,029) से 1971 (3,628) की जनगणना में गिरावट दर्ज की गई लेकिन 1981 में संपन्न जनगणना आंकड़ों के मुताबिक इनकी आबादी 4,057 थी। बिहार में ये गुमला, लोहरदगा, और पलामू जिलों में पाए जाते हैं।
परम्परा के मुताबिक बिरजिया लोहा पिघलाने वाले,अच्छे शिकारी और जंगली उत्पाद इकट्ठा करने वाले होते हैं। ये शायद ही अपने किसी निवास स्थल पर दो वर्षों से अधिक ठहरते हैं। बिरजिया लाह, मधुमक्खियों के छत्ते से मोम, जंगली कंद – मूल, जड़ी बूटियाँ आदि जमा करते हैं जो इनका मुख्य आहार होता है। इनमें से बहुत से लोग आज भी लोहा पिघलाने तथा स्थान बदल – बदल कर कृषि करने का काम करते हैं। लेकिन जंगलों के संबंध में बने नये कानून से इनकी आर्थिक गतिविधियों पर जंगल के निजी सरकारी ठेकेदारों के यहाँ दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करना शुरू कर दिया है। खेती का इनका तरीका बहुत प्राचीन है तथा इस विधि से ये अपने लिए पर्याप्त अन्न पैदा नहीं कर सकते हैं। खेतों में बीज रोपने के लिए ये बांस की नुकीली छड़ियों का प्रयोग करते हैं। जमीन में इससे छेद बना कर उसमें बीज डाली जाती है। वस्तुओं के भण्डारण के लिए ये पत्तों को सावधानी से मोड़ कर तथा रस्सियों के सहारे बांध लपेट कर पत्र का निर्माण करते हैं। बिरजिया खाने पीने के लिए पत्तों से प्लेट का निर्माण करते हैं। इनके पास बांस की टोकरी या डाली मोरा आदि होता है। यह लोग मिट्टी के बर्तनों का भी प्रयोग करते हैं।
बिरजिया को सामाजिक व्यवस्था के मुताबिक दो समूहों में बांटा गया है – 1. सिंदूरिया औब, 2. तीलिया। इसमें और दो उपसमूह है – क. दूध, ख. रश बिरजिया। दूध बिरजिया के लिए गोमांस प्रतिबंधित है लेकिन रस बिरजिया के लिए नहीं। ये दोनों समूह एक पत्नी रखने वाले नहीं होते हैं। दो अलग समूहों के बीच वैवाहिक सम्बन्धी की स्थिति मे वर पक्ष के रीति रिवाजों का पालन किया जाता है। एक ही गणचिन्ह वाले समूहों में विवाह की अनुमति नहीं होती है। यदि कोई बिरजिया जाति से बाहर विवाह कर लेता है तो वह समाज को सात दफे भोजन कराने का दंड पाकर अपनी जाति में वापस आ सकता है।
अन्य जनजातियो की तरह इनमें भी बच्चे के जन्म को छुत माना जाता है। बच्चा और जच्चा अलग रहते हैं तथा इनकी देखभाल परिवार की बुजुर्ग महिला द्वारा की जाती है। दस दिन या उसके बाद जच्चा तभी पवित्र मानी जाती है जब वह स्नान करती है और नए वस्त्र पहनती है। बच्चे का नामकरण उसके पूर्वजों तक धुमकुरिया (लड़कों के लिए सामूहिक आवास स्थल) में रहना पड़ता है।
विवाह की बातचीत दो मित्रों जिन्हें बिसूत कहते हैं द्वारा चलायी जाती है। यदि लड़की का पिता विवाह के प्रस्ताव से सहमत होता है तो सगाई की एक तारीख को बिसूत होने वाले दुल्हे और हड़िया (चावल की शराब) के साथ लड़की के घर पहुँचता है। जहाँ पहले से मौजूद लोगों में हंडिया मिट्टी के बर्तन टोपरा में बांटी जाती है। रात में भोज का आयोजन होता है तथा चावल की शराब के दौर चलते हैं। अगली सुबह लड़की का पिता शादी की तारीख तय करता है। शादी सामान्यत: सगाई से एक वर्ष बाद होती है। शादी की तारीख को दूल्हा अपने बिसूत और दो ढोल बजाने वालों के साथ मिट्टी के पांच मटकी में हंडिया (चावल की शराब), दो सूअर, पांच रूपये नकद तथा अन्य सामान लेकर लड़की के घर पहुँचता है। रास्ते में कन्या पक्ष के लोग उनसे मिलते हैं। बिसूत की निगरानी में वर और कन्या पत्तों और बांस से बने छप्पर जिसे मड़वा कहते हैं के नीचे खड़े होते हैं। दोनों बिसूत उनके सर पर तेल चुपड़ देते हैं और उनके बाल बाँध दिए जाते हैं जो इस बात का प्रतीक होता है कि दोनों व्यक्ति अब एक हो गये। इसके बाद एक बिसूत वर को तथा दूसरा कन्या को अपने कंधे पर उठा कर थोड़ी देर के लिए नाचता है। विवाह की यही मुख्य रस्में होती हैं। इस रस्म से बाद शराब और भोजन का दौर चलता है। बिरजिया जनजाति में बहुविवाह की प्रथा है। एक बिरजिया पुरूष दो बहनों के साथ विवाह सकता है लेकिन उसे पहले बड़ी बहन के साथ विवाह करना होता है इनमें तलाब बहुत सहज है तथा तलाक बिरजिया समाज के प्रधान के सामने लिया या दिया जा सकता है। सगईना प्रथा के तहत परित्यक्ता स्त्री को पुनर्विवाह की अनुमति होती है।
मृत्यु को भी बिरजिया परिवार के लिए अपवित्रता मानते हैं तथा इसकी शुद्धि काफी लंबे चौड़े समारोह के बाद होती है। मृतकों का अंतिम संस्कार जलाकर तथा दफना कर दोनों तरह से करने की प्रथा है। जब एक व्यक्ति की मौत होती है तो परिवार के पुरूष सदस्य अंतिम संस्कार के लिए सभी इंतजाम करते हैं, परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति शव को नहीं हाथ लगाता है। मृतक का सबसे नजदीकी रिश्तेदार शव की पांच परिक्रमा करता है तथा प्रत्येक बार पुआल के एक बंडल में अग्नि प्रज्जवलित कर उससे मृतक को पहले मुखाग्नि फिर शरीर पर अग्नि देता है। जब शव जला जाता है तो आग बुझाकर शव के बची- खुची अस्थियों को मिट्टी के एक बर्तन में जमा कर एक खास स्थान पर दफना दिया जाता है। सामान्यत: यह स्थान सड़क के किनारे होता है। मृतक की आत्मा की संतुष्टि के लिए अस्थि कलश पर एक काले मुर्गे की बलि देकर उसका रक्त टपका दिया जाता है। जहाँ अस्थि कलश गाड़ा जाता है स्मृति के तौर पर उस स्थान पर एक पत्थर कालबुद लगा दिया जाता है बलि दिए गये मुर्गे घर लाकर खा लिया जाता है। अंतिम संस्कार में शामिल होने वाले लोग वहां से लौट कर बाल बनाते हैं तथा नदी में स्नान करते हैं। उनकी शुद्धि के लिए मृतक के परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति उनके ललाट पर तेल और हल्दी के लेप लगाता है। इसके बाद पंच कुँवारी रस्म अदा की जाती है जिसमें पांच लड़कों को विशेष तौर पर चावल और सूअर के मांस का भोजन कराया जाता है। भोज में अन्य लोगों के शामिल होने पर रोक नहीं होती है।
अन्य जनजातियों की तरह अनेक त्यौहार और पूर्वजों की पूजा बिरजिया जनजाति की धार्मिक गतिविधियों के प्रमुख अंग हैं। बिरजिया अपने परिवार के दिवंगत लोगों की पूजा के लिए उनके नाम पर जमीन में पांच स्थानों पर दाल तथा अरवा चावल रखता है। पूर्वजों को चढ़ाए गए इस भोग को खाने के लिए एक काला मेमना लाया जाता हैं जैसे ही मेमना उसे कुछ खा लेता है उसका सिर उसी स्थान पर धड़ से अलग कर दिया जाता है। मेमने के सर को चावल और दाल के पास रखा जाता है तथा उस पर पानी छिड़का जाता है। घर का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति झुककर उसे प्रणाम करता है। इसके बाद सिर को टूकड़ों में बाँट कर खाने के लिए पकाया जाता है। जब सिर को पका लिया जाता है तो पके हुए मांस के पत्तों से बने पांच दोने में लाया जाता है, उसी तरह चावल और दाल को मिला कर खिचड़ी बनाई जाती है तथा उसे भी पांच दोने पर भोग के रूप में चढ़ाया जाता है। इस रस्म के बाद वहां मौजूद सदस्य मांस और खिचड़ी का भोजन करते हैं।
एक ओर जहाँ कई जनजातियों ने इसाई धर्म की ओर आकर्षित होकर अपना धर्मांतरण किया है वहीँ बिरजिया जनजाति ने इसाई धर्म को कबूल नहीं किया है। ये आज भी अपनी परंपरा और अपने रीति – रिवाजों को जीवित रखे हुए हैं।
विरजिया समाज में बैगा एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। बैगा समाज के पंचायत का प्रधान होता है, पंचायत में समाज के अन्य बड़े बुजुर्ग शामिल होते हैं। पंचायत इस जनजाति की परम्पराओं और इसकी रीति - रिवाजों की सुरक्षा करता है। पंचायत में सामाजिक विवाद तथा सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से जुड़े मामलों को निपटारा किया जाता है। पंचायत पर फौजदारी या दीवानी मुकदमों का बोझ नहीं डाला जाता है।
स्त्रोत: कल्याण विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/30/2019
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