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फसल परागण एवं मधुमक्खी वनस्पति जगत

फसल परागण एवं मधुमक्खी वनस्पति जगत

  1. भूमिका
  2. परागकों को होने वाली क्षति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक
  3. परागकों की विविधता
  4. मधुमक्खियों की विविधता और फसल परागण
  5. मधुमक्खी परागण के सिद्धांत
  6. मधुमक्खियां तथा टिकाऊ फसल उत्पादकता
  7. तिलहनी फसलें
  8. चारा तथा अन्य विविध फसलें
  9. मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों की संख्या में गिरावट
  10. वन्य तथा पाले हुए परागकों की संख्या में कमी के कारण
  11. कीट परागकों व मधुमक्खी विविधता के संरक्षण व प्रबंध के लिए कार्यनीतियां
    1. मधुमक्खी छत्तों के स्थलों का प्रबंध
    2. परागकों के लिए भ्रमण क्षेत्र
    3. रसायनों के आवश्यकता से अधिक उपयोग में कमी लाना
    4. परागकों का प्रबंध
    5. हरित लेखाकरण
    6. अन्य उपयुक्त उपाय
  12. मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
  13. फसल उत्पादन पर परागकों की घटती हुई संख्या व जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
  14. मधुमक्खियों से संबंधित वनस्पतियां
  15. मधुमक्खियों के लिए उपयोगी वनस्पतियों का प्रवर्धन

भूमिका

परागण एक अनिवार्य पारिस्थितिक प्रणाली सेवा है जो वन्य पादप समुदायों के साथ-साथ कृषि की उत्पादकता को बनाए रखने की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। पराग स्वयं पर्यावरणीय स्वास्थ्य के संकेतक के रूप में कार्य कर सकते हैं अर्थात् इनसे यह ज्ञात हो सकता है कि पर्यावरण की स्थिति कैसी है। ऐसा अनुमान है कि विश्वभर में फसलों के परागण का कुल वार्षिक आर्थिक मूल्य लगभग 153 बिलियन डॉलर है तथा विश्व के लगभग 85 प्रतिशत पौधे परागण के लिए पशुओं, अधिकांशतः कीटों पर निर्भर करते हैं।

खेती के दौरान किसी किसान का सर्वाधिक वांछित लक्ष्य किसी निर्धारित पारिस्थितिकी के अंतर्गत दिए गए निवेशों से फसलों की यथासंभव सर्वोच्च उपज लेना व बेहतर गुणवत्ता वाले फल व बीज प्राप्त करना होता है। जब किसान नकदी फसलों की खेती करते हैं तो उनके लिए विशेष रूप से अपनी उपज का प्रीमियम मूल्य प्राप्त करना महत्वपूर्ण हो जाता है। फसल उत्पादकता बढ़ाने की दो सुविख्यात विधियां हैं। पहली विधि सस्यविज्ञानी निवेशों जिनमें पौधों को उगाने की तकनीकें जैसे अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों व रोपण सामग्री के उपयोग के साथ-साथ अच्छी विधियों को अपनाना भी शामिल है, और उपज में सुधार करना है। उदाहरण के लिए अच्छी सिंचाई, जैविक खाद तथा अकार्बनिक उर्वरकों व नाशकजीवनाशियों का उपयोग करके उपज में सुधार करना। दूसरी विधि में जैवप्रौद्योगिकीय तकनीकों जैसे प्रकाश संश्लेषण की दर में फेरबदल करना व जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण को सुधारना, को अपनाकर उपज को बढ़ाना है। परंपरागत तकनीकों से फसल पौधों की स्वस्थ वृद्धि सुनिश्चित होती है लेकिन यह एक सीमा तक ही कारगर है। एक अवस्था के पश्चात् किसी फसल की ज्ञात सस्यविज्ञानी क्षमता के लिए अतिरिक्त निवेशों का उपयोग करने पर भी फसल की उत्पादकता या तो स्थिर हो जाती है या उसमें कमी आ जाती है। तीसरा और अपेक्षाकृत कम ज्ञात विकल्प जिससे फसलों की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है, विशेषकर एशियाई क्षेत्र में, पर्यावरण मित्र कीटों का उपयोग करके फसलों के परागण को प्रबंधित करके फसलों की उपज को बढ़ाना है। यह भोजन की खोज में लगे कीटों द्वारा किसानों के लिए की जाने वाली एक उपयोगी सेवा है।

परागण सेवाएं प्रबंधित तथा अप्रबंधित परागकों की जनसंख्याओं, दोनों पर निर्भर हैं। प्रबंधित परागण निम्न कारणों से वर्तमान कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है - कृषि रसायनों द्वारा प्राकृतिक परागकों की जनसंख्या में कमी आ रही है तथा ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण प्राकृतिक परागक कीटों का पर्याप्त उपयोग नहीं हो पा रहा है। अनपेक्षित असामान्य मौसम संबंधी स्थितियां तथा टिकाऊ खेती में जन-सामान्य की गहन रूचि के संदर्भ में प्राकृतिक कीटों से परागण का महत्व और बढ़ जाता है। विशेष रूप से कृत्रिम परागण के परिणामस्वरूप फलों की गुणवत्ता गिर जाती है। जैसे उनका आकार घट जाता है और आकृति भी विषम हो जाती है। प्रबंधित परागकों, बॉम्बस टेरिस्टिस तथा ओस्मिया कार्निफ्रोंस पर ध्यान देने तथा इनकी बढ़ती हुई भूमिका का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाणिज्यीकरण किया गया है। एक अमेरिकी कंपनी तथा कोपेर्ट बायोलॉजिकल सिस्टम के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास से परागण कीटों की नई किस्में विकसित की गई हैं। जापान में बड़े पैमाने पर परागकों के उत्पादन पर अनुसंधान किए जा रहे हैं तथा परागकों की अनेक नई किस्में विकसित की जा चुकी हैं।

मधुमक्खियों द्वारा विभिन्न फसलों के पर-परागण से फसल की उपज में वृद्धि होती है, फलों व बीजों की गुणवत्ता में सुधार होता है तथा संकर बीज का बेहतर उपयोग करने में सहायता मिलती है। मधुमक्खियों द्वारा कीटरागी फसलों का परपरागण फसलों की उपज बढ़ाने की सर्वाधिक प्रभावी और सस्ती विधियों में से एक है। अन्य सस्यविज्ञानी विधियां जैसे खादों, नाशकजीवनाशियों, उर्वरकों आदि का उपयोग काफी महंगा है और इनसे उपज संबंधी वांछित परिणाम तब तक प्राप्त नहीं हो सकते हैं जब तक कि परागण द्वारा विभिन्न फसलों की उत्पादकता के स्तरों को बढ़ाने के लिए मधुमक्खियों का उपयेाग न किया जाए। न केवल स्व-उर्वर किस्मों को पर-परागण की आवश्यकता होती है, बल्कि स्व-उर्वर पौधों से भी मधुमक्खियों व अन्य कीटों के द्वारा परागण से बेहतर गुणवत्ता वाले बीज उत्पन्न किए जा सकते हैं। रॉबिनसन और साथियों ने (1989) यह सुझाया था कि अमेरिका में परागण के लिए प्रति वर्ष लगभग एक मिलियन मधुमक्खी क्लोनियाँ किराए पर दी जाती हैं जबकि दूसरी ओर भारत में परागण के उद्देश्य से वांछित मधुमक्खी क्लोनियों  की संख्या 150 मिलियन से अधिक है लेकिन वर्तमान क्षमता केवल एक मिलियन है। क्योंकि लगभग 160 मिलियन हैक्टर कुल फसलित क्षेत्र में से मात्र 55 मिलियन हैक्टर कीटरागी उन फसलों का है। जिन्हें पर परागण की आवश्यकता होती है।

मधुमक्खियां कृषि तथा बागवानी फसलों की महत्वपूर्ण परागक हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि मानव आहार का एक तिहाई भाग मधुमक्खियों के परागण से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्राप्त होता है। मधुमक्खियां तथा पुष्पीय पौधे अपने अस्तित्व के लिए परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। अधिकांश पौधे अपनी परागण संबंधी आवश्यकताओं के लिए कीटों पर निर्भर करते हैं जबकि कीट अपनी गतिविधियां जारी रखने हेतु ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पौधों पर निर्भर रहते हैं। पौधों तथा पुष्प रस एकत्र करने वाले कीटों के बीच ऊर्जा का यह संबंध फसलों के परागण, शहद उत्पादन व मधुमक्खियों की गतिविधि संबंधी कार्यनीतियों के अध्ययन का आवश्यक आधार है। मधुमक्खियां तथा कुछ पुष्पीय पौधे इस प्रकार स्वतंत्रता की भली प्रकार से समायोजित प्रणाली के विकास में शामिल हैं जो उनके जैविक विकास की प्रक्रिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) का यह अनुमान है कि 100 से कुछ अधिक फसल प्रजातियां 146 देशों के लिए लगभग 90 प्रतिशत खाद्य की आपूर्ति करती हैं, इनमें से 71 मधुमक्खी द्वारा परागित हैं (मुख्यतः वन्य मधुमक्खियों द्वारा) तथा कुछ अन्य थ्रिप्स, बर्गे, मक्खियों, भूगों, पतंगों व अन्य कीटों द्वारा परागित होती हैं। यूरोप में 264 फसल प्रजातियों में से 84 प्रतिशत पशु परागित हैं तथा सब्जियों की 4000 प्रजातियां मधुमक्खियों के परागण के लिए उनकी आभारी हैं। जिनसे उनका अस्तित्व बचा रहता है। परागक अनेक वन्य पुष्पों तथा फलों के पुनरोत्पादन या जनन के लिए अनिवार्य हैं। हम यदि एक ग्रास ग्रहण करते हैं तो हमें इसके लिए मधुमक्खियों, तितलियों, चमकादड़ों, पक्षियों अथवा अन्य परागकों का आभारी होना चाहिए। जैव विविधता में होने वाली कोई भी क्षति सार्वजनिक चिंता का विषय है लेकिन परागक कीटों को होने वाली क्षति बहुत ही कष्टदायक हो सकती है क्योंकि इससे पौधों की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है और अंततः हमारी खाद्य आपूर्ति सुरक्षा पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। अनेक कृषि फसलें तथा प्राकृतिक पौधे परागण पर निर्भर करते हैं और अक्सर उन्हें यह सेवा वन्य, अप्रबंधित परागक समुदायों द्वारा प्रदान की जाती है।

परागकों को होने वाली क्षति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक

संयुक्त राष्ट्र कृषि विभाग के अनुसार परागकों की बहुत बड़ी संख्या समाप्त होती जा रही है। और 50 से अधिक परागक प्रजातियां ऐसी हैं जो लुप्त होने के कगार पर हैं। परागकों की गतिविधियों में निरंतर होने वाली गिरावट से परागण पर निर्भर फलों और सब्जियों की कीमत बहुत बढ़ सकती है। परागकों को होने वाली क्षति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक हैं  -

आवास व भूमि उपयोग में परिवर्तन

नाशकजीवनाशियों का बढ़ता हुआ उपयोग व पर्यावरणीय प्रदूषण

संसाधन विविधता में कमी

जलवायु परिवर्तन और रोगजनकों का प्रसार ।

आवास की क्षति को परागकों की संख्या में आने वाली कमी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक माना गया है। जैव विविधता में होने वाली क्षति से न केवल प्राकृतिक पारिस्थितिक प्रणालियां प्रभावित हो रही हैं बल्कि इससे उनके द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली ऐसी सेवाएं भी प्रभावित हो रही हैं जो मानव समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं जैसे वातावरण में ऑक्सीजन की उपस्थिति, मिट्टियों तथा परागण का नवीकरण जो फल और बीज उत्पादन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है तथा जिसे कीटों व अन्य फसलों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अभी हाल तक अधिकांश किसान परागण को प्रकृति की अनेक ‘निःशुल्क सेवाओं में से एक मानते आ रहे थे और उन्होंने कभी भी इसे 'कृषि निवेश के रूप में नहीं लिया था। इसकी इतनी उपेक्षा की गई कि इसे कृषि विज्ञान पाठ्यक्रमों में विषय के रूप में भी शामिल नहीं किया गया था। यह अवधारणा अब अप्रासंगिक हो चुकी है क्योंकि स्थिति में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं। इनकी निकट भविष्य में निगरानी करने तथा इनसे संबंधित समस्याओं को दूर करने की आवश्यकता है क्योंकि ये जैव विविधता, वैश्विक खाद्य स्थिति और अंततः मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल रही हैं। यद्यपि सावधानियों जैसे बेहतर विनियमन, नाशकजीवनाशियों के अधिक छिड़काव से बचना व नाशकजीवनाशियों के प्रकार व उनके छिड़काव के समय में परिवर्तन करके इस खतरे को कम किया जा सकता है लेकिन इस ओर तत्काल कार्रवाई आवश्यक है। वर्तमान में पूरे विश्व के समक्ष ‘परागण संकट उत्पन्न हो गया है जो वन्य तथा प्रबंधित दोनों प्रकार के परागकों के लिए है क्योंकि ये चिंताजनक दर से कम होते जा रहे हैं। इस प्रकार, हमारे किसानों का भविष्य मुख्यतः परागकों पर ही निर्भर है।

परागकों की विविधता

अधिकांश वन्य फसलें व पुष्पीय पौधों की प्रजातियां फल और बीज उत्पादन के लिए पशु परागकों पर निर्भर हैं। सौ या इससे अधिक पशु परागक फसलें जो विश्व की खाद्य आपूर्ति का मुख्य भाग हैं, उनमें से लगभग 80 प्रतिशत का परागण मधुमक्खियों, वन्य मधुमक्खियों व वन्य जीवन के अन्य स्वरूपों द्वारा होता है। मधुमक्खियां कृषि फसलों की सर्वाधिक प्रमुख परागक हैं। परागकों तथा परागण प्रणालियों में विविधता बहुत अधिक है। मधुमक्खियों की 25,000 से 30,000 प्रजातियों में से अधिकांश प्रभावी परागक हैं और इनके साथ पतंगें, मक्खियां, बर्र, भंग व तितलियां ऐसी अनेक प्रजातियां हैं जो परागण की सेवाएं प्रदान करती हैं। रीढ़धारी परागकों में चमगादड, उड न पाने वाले स्तनपायी (बंदरों, कुंतकों, लैमूर व वृक्ष गिलहरियों आदि की अनेक प्रजातियां) तथा पक्षी (हमिंग बर्ड,

सन बर्ड, हनी क्रीपर व तोतों की कुछ प्रजातियां) शामिल हैं। परागण प्रक्रिया के बारे में वर्तमान समझ से यह प्रदर्शित होता है कि यद्यपि पौधों और उनके परागकों के बीच बड़ा रुचिकर संबंध विद्यमान है। तथापि, स्वस्थ परागण सेवाएं केवल परागकों की प्रचुरता और विविधता से ही सुनिश्चित की जा सकती है। विश्व की कृषि फसलों में से लगभग 73 प्रतिशत फसलें जैसे काजू, संतरे, आम, कोको, क्रेनबेरी और ब्लूबेरी मधुमक्खियों द्वारा, 19 प्रतिशत मक्खियों द्वारा, 6.5 प्रतिशत चमगादड़ों द्वारा, 5 प्रतिशत बर्र द्वारा, 5 प्रतिशत भूगों द्वारा, 4 प्रतिशत पक्षियों द्वारा और 4 प्रतिशत तितलियों व पतंगों द्वारा परागित होती हैं। हमारी तथा पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला की 100 मुख्य फसलों में से केवल 15 प्रतिशत ही घरेलू मक्खियों (अधिकांशतः मधुमक्खियों, बम्बल मक्खियों और एल्फाएल्फा लीफकटर मक्खियों) द्वारा परागित होती हैं जबकि कम से कम 80 प्रतिशत वन्य मधुमक्खियों तथा वन्य जीवन के अन्य स्वरूपों द्वारा परागित होती हैं।

हरियाणा की कृषि पारिस्थितिक प्रणालियों में बागानों, कृषि तथा चारा उत्पादन के साथ-साथ अनेक जड़ व रेशेदार फसलों के बीजोत्पादन के लिए परागकों का होना अनिवार्य है। मधुमक्खियों, पक्षियों तथा चमगादड़ जैसे परागक विश्व फसलोत्पादन के 35 प्रतिशत भाग को प्रभावित करते हैं। विश्वभर में प्रमुख खाद्य फसलों में से 87 निर्गमों की वृद्धि के साथ-साथ पौधे से उत्पन्न औषधियों के लिए इस प्रकार का परागण बहुत जरूरी है। खाद्य सुरक्षा, खाद्य विविधता, मानवीय पोषण तथा खाद्य पदार्थों के मूल्य ये सभी कुछ पशु परागकों पर ही निर्भर हैं।

मधुमक्खियों की विविधता और फसल परागण

वर्तमान में भारतीय उपमहाद्वीप में मधुमक्खियों की चार या इससे अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से एपिस सेराना एफ., एपिस डोर्साटा एफ., लेबोरियोसा और एपिस फ्लोरी एफ. इस क्षेत्र की मूल वासी हैं जबकि यूरोपीय मधुमक्खी, एपिस मेलीफेरा एल. को शहद का उत्पादन व फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पिछली शताब्दी के छठे दशक के मध्य में हरियाणा सहित उत्तरी भारत में लाया गया था। ए. सेराना को ए. मेलीफेरा के समतुल्य माना जाता है क्योंकि ये दोनों प्रजातियां समानांतर छत्ते बना सकती हैं और इन्हें पाला जा सकता है। ए. मेलिफेरा की आनुवंशिक विविधता को 24 उप प्रजातियों में बांटा गया है जिनकी अलग-अलग आर्थिक उपयोगिता है। ये उप प्रजातियां व्यापक श्रेणी की पारिस्थितिक दशाओं के प्रति स्वयं को ढालने में सक्षम हैं तथा ये 00 (भूमध्य रेखा) से 500 उतर और 300 दक्षिण में पाई जाती हैं। जहां तक मधुमक्खी की देसी प्रजाति, ए. सेराना का संबंध है, हिमाचल प्रदेश विश्वविविद्यालय, शिमला स्थित अनुसंधान समूह ने ए. सेराना की तीन उप प्रजातियों, नामतः ए. सेराना सेराना, ए. सेराना हिमालया और ए. सेराना इंडिका की सफलतापूर्वक पहचान की है जो क्रमशः उत्तर पश्चिम, उत्तर पूर्व हिमालय तथा दक्षिण भारत में भौगोलिक वितरण से सम्बद्ध हैं। ये हमारे देश के विभिन्न भागों में ए. सेराना की भौगोलिक जनसंख्याओं के अनुरूप हो सकती हैं। ए. मेलिफेरा और ए. सेराना मधुमक्खियों के बीच इस अपार जैव विविधता का उपयोग भारत में फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए किया जा सकता है और इनसे गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले करोड़ों निर्धन लोगों को खाद्य एवं पोषणिक सुरक्षा उपलब्ध कराने में सहायता प्राप्त हो सकती है।

मधुमक्खी परागण के सिद्धांत

विकासशील देशों में फसल परागण पर अधिकांश अन्वेषण किए गए हैं जहां यूरोपीय मधुमक्खी, एपिस मेलिफेरा का विभिन्न कृषि फसलों की उपज बढ़ाने में गहन रूप से उपयोग किया गया है। तथापि, एशियाई छत्ता मधुमक्खी, एपिस सेराना की दक्षिण व दक्षिण पूर्व एशिया के विकासशील देशों में कृषि फसलों के परागण के संबंध में निभाई जाने वाली भूमिका के बारे में बहुत कम सूचना उपलब्ध है। तथापि, इनके भ्रमण व्यवहार में उल्लेखनीय समानताएं देखी गई हैं, अतः मधुमक्खियों की इन दो प्रजातियों द्वारा फसल परागण में शामिल मूल सिद्धांत उल्लेखनीय रूप से भिन्न नहीं होने चाहिए। वर्तमान में हरियाणा राज्य में ए. मेलिफेरा फसल उत्पादकता में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

मधुमक्खियां तथा टिकाऊ फसल उत्पादकता

सब्जी फसलें

गुणवत्तापूर्ण बीजों की वांछित मात्रा में उपलब्धता हरियाणा में सफल सब्जी उद्योग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है। ऐसे गुणवत्तापूर्ण बीजों के उत्पादन के लिए सब्जी फसलों का पर्याप्त और उचित पर परागण होना बहुत जरूरी है। इसके अतिरिक्त सब्जी की अनेक फसलें पूर्णतः या आंशिक रूप से स्व-अक्षम होती हैं और स्वतः परागण करने में सक्षम नहीं होती हैं। अतः मधुमक्खियों द्वारा किया जाने वाला पर परागण बहुत महत्वपूर्ण है। इसके एवज में सब्जियों के पुष्प मधुमक्खियों के लिए पराग और पुष्प रस का श्रेष्ठ स्रोत सिद्ध होते हैं।

हाल ही में हरियाणा सहित उत्तर भारत के कुछ भागों में भूमि के एक बड़े क्षेत्र में बेमौसमी सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है जिससे किसानों को सब्जियों के सामान्य मौसम में उत्पादन की तुलना में 4 से 5 गुनी अधिक आमदनी होती है। इसी प्रकार उत्तर भारत के अन्य भागों में लोगों के स्वभाव में आने वाले परिवर्तन व नकद आमदनी के साधनों में वृद्धि के कारण सब्जियों की खेती का तेजी से प्रचार–प्रसार हो रहा है। इसे ध्यान में रखते हुए भविष्य में सस्ती दरों पर उच्च गुणवत्ता वाले सब्जी बीजों की मांग में तेजी से बढ़ोतरी होने की संभावना है। इस मांग की पूर्ति का एक उपाय मधुमक्खियों की परागण सेवाओं का उपयोग करके फसलों का उत्पादन बढ़ाना है जिसके लिए सब्जी बीजों के उत्पादन प्रौद्योगिकी में मधुमक्खी पालन को एक अनिवार्य घटक के रूप में शामिल किया जाना चाहिए।

अब यह अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है कि मधुमक्खियों के पर परागण से हरियाणा में सब्जी बीजों की उपज तथा गुणवत्ता में वृद्धि करने में सहायता मिलती है। मधुमक्खियों की इस गतिविधि से अंतर परागण के कारण ऐसे फसलों में शुद्ध बीजोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस समस्या को उसी फसल की विभिन्न किस्मों के बीच आवश्यक विलगन दूरी उपलब्ध कराके हल किया जा सकता है, ताकि पर परागण और मिलावट न हो। वयस्क कमेरी मक्खियों के भ्रमण क्षेत्र सदैव सीमित होते हैं तथा पराग व पुष्प रस अथवा दोनों को एकत्र करने के लिए खेतों में उनके लगातार आने के दौरान उनकी गतिविधियों को किसी विशेष क्षेत्र तक ही सीमित किया जा सकता है। जिन मामलों में सुसंगत किस्में काफी नजदीक होती हैं वहां अंतर परागण या मिलावट की संभावना अधिक रहती है। तथापि, सुसंगत किस्मों वाले सुदूर खेतों में मधुमक्खियों के उड़ान के क्षेत्र में कोई दोहराव नहीं आता है तथा शुद्ध बीज का उत्पादन करना संभव होता है। इस प्रकार की वास्तविक विलगन दूरी वांछित बीज की शुद्धता की मात्रा पर निर्भर करती है।

तिलहनी फसलें

तिलहनी फसलें अनेक देशां की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। तिलहनों से प्राप्त तेल तथा वसा न केवल मनुष्यों तथा पशुओं के आहार का अनिवार्य अंग हैं बल्कि इनका उपयोग अपरिहार्य है। यह देखा गया है कि हरियाणा सहित देश के कुछ भागों में तिलहनों का उत्पादन या तो स्थिर हो गया है या धीरे-धीरे घटता जा रहा है। हरियाणा की विभिन्न सरकारी एजेंसियों द्वारा तिलहन उत्पादन के अंतर्गत भूमि के और अधिक क्षेत्रों को लाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि तेलों की बढ़ती हुई मांग को पूरा किया जा सके। तिलहनों का उत्पादन बढ़ाने का एक उपाय नियोजित मधुमक्खी परागण कार्यक्रम को एक अनिवार्य निवेश के रूप में फसलोत्पादन में शामिल किया जाना है जो अभी तक इस क्षेत्र में नहीं देखा गया है। इसका मुख्य कारण कृषि विस्तार एजेंसियों व किसानों में इस पहलू के प्रति अज्ञानता है।

महत्वपूर्ण तिलहनों फसलों में से मूंगफली, सरसों, तिल, कुसुम, राम तिल और सूरजमुखी फसलें भारत में गहन रूप से उगाई जा रही हैं। चूंकि मूंगफली को छोड़कर अधिकांश ये फसलें पर परागित हैं अतः प्रति इकाई भूमि क्षेत्र में इनकी उपज बढ़ाने के लिए पर्याप्त परागण बहुत जरूरी है। यह भी ज्ञात है कि मधुमक्खियों द्वारा परागण से फसल समरूप पकती है तथा उसकी कटाई जल्दी की जा सकती है। इससे अगली फसल को फसल क्रम में समय पर बोना संभव होता है। ऐसे उत्साहजनक परिणामों को देखते हुए हरियाणा सहित भारत के किसानों के लिए विभिन्न विस्तार एजेंसियों द्वारा मधुमक्खी द्वारा परागण के प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे हैं, ताकि उनमें मधुमक्खियों द्वारा होने वाले परागण के लाभप्रद प्रभावों के बारे में जागरूकता उत्पन्न की जा सके।

चारा तथा अन्य विविध फसलें

गोमांस, शूकर मांस, कुक्कुट मांस, भेड़ मांस या डेरी उत्पादों जैसे पशु उत्पादों में होने वाला सुधार चारे तथा पशुधन को खिलाए जाने वाले राशन की गुणवत्ता व मात्रा को सुधारने पर निर्भर है। पर्याप्त मात्रा में इस प्रकार के गुणवत्तापूर्ण चारे की उपलब्धता से विश्वसनीय, सस्ते तथा श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले बीजों की आपूर्ति पर निर्भर करती है। बीज गुणवत्ता के तीन परंपरागत घटक (अर्थात् भौतिक, आनुवंशिक व प्रमुख गुणवत्ता) तब अत्यधिक सुधर जाते हैं जब पुष्प खिलने के दौरान मधुमक्खियों द्वारा बीज फसलों का परागण होता है।

अनेक चारा फसलें मधुमक्खियों पर निर्भर हैं तथा इन्हें मधुमक्खियों द्वारा किए जाने वाले परागण से बहुत लाभ होता है। हरियाणा सहित भारत में उगाई जाने वाली प्रमुख चारा फसलें हैं  - एल्फाएल्फा, क्लोवर, ट्रेफॉइल, वैच और सैनफॉइल । इन फसलों के लिए पर परागण या तो अनिवार्य है या इनके बीजोत्पादन को बढ़ाने में लाभप्रद है।

चारा फसलों के अलावा बकव्हीट, कॉफी, कपास, फील्डबीन और इलायची जैसी कुछ विविध फसलें भी हैं जो विश्व की सबसे महंगी बीज मसाला प्रजातियों में हैं और पर-निषेचित फसलें हैं, ये भी परागण के लिए मधुमक्खियों पर ही निर्भर हैं। कीट परागकों की अनेक प्रजातियां जैसे मधुमक्खियों की विभिन्न प्रजातियां, वन्य मधुमक्खियां, डाइप्टेरियन, कोलियोप्टेरियन, लेपिडोप्टेरियन आदि उपरोक्त फसलों के परागण में सहायक हैं। तथापि, मधुमक्खियां मुख्य परागक हैं जो कुल कीट परागकों के 88 प्रतिशत से अधिक योगदान देने वाली हैं तथा ये फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में बहुत सहायता पहुंचाती हैं।

मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों की संख्या में गिरावट

जो परागक बहुत लम्बी अवधि में विकसित हुए थे, विश्वभर में उनकी जनसंख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। वर्तमान में अनेक महत्वपूर्ण परागक विशेष रूप से मधुमक्खियां अभूतपूर्व रूप से विश्वभर में मर रही हैं और विभिन्न प्राधिकारियों द्वारा अब तक उनकी संख्या में आने वाली गिरावट के कोई उचित कारण नहीं बताए गए हैं। मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों की जनसंख्या में आने वाली इस अनवरत गिरावट का दीर्घावधि में गंभीर पारिस्थितिक व आर्थिक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि ये विश्व भर में अधिकांश कृषि, बागवानी व नकद फसलों के परागण का अभिन्न अंग हैं। अनेक अन्य परागक जैसे डीगर मक्खियां, स्वैट मक्खियां, एल्कली मक्खियां, स्क्वॉश मक्खियां, लीफकटर मक्खियां, कार पेंटर मक्खियां, मेशन मक्खियां तथा शैगी फजी फुट मक्खियां संख्या में कम होती जा रही हैं लेकिन आंकड़ों से अस्पष्ट प्रवृत्तियां प्रदर्शित हो रही हैं जिनका परस्पर कोई तालमेल नहीं है।

वन्य तथा पाले हुए परागकों की संख्या में कमी के कारण

परागकों की संख्या में आने वाली कमी के संबंध में कोई वैज्ञानिक तथ्य अब तक उपलब्ध नहीं है। तथापि, हमारे पर्यवेक्षणों, अनुभवों व पिछले संसाधनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि परागकों व विशेष रूप से कीट परागकों जैसे मधुमक्खियों, बम्बल मक्खियों, डाइक्टेरियन आदि की संख्या हरियाणा सहित पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में कम हो रही है। परागकों की संख्या में इस कमी के लिए उत्तरदायी महत्वपूर्ण कारक निम्नानुसार हैं  -

  • रासायनिक नाशकजीवनाशियों का आवश्यकता से अधिक और बगैर सोचे-समझे उपयोग।
  • भूमि उपयेाग में परिवर्तन, एकल फसलों की खेती और निर्वनीकरण।
  • वन्य मधुमक्खी क्लोनियों  से शहद निकालने की परंपरागत विधियों का उपयोग।
  • देसी परागकों के संरक्षण की दिशा में न्यूनतम प्रयास।
  • उच्च उपजशील संकुल तथा संकर किस्मों को बढ़ावा देकर कृषि का गहनीकरण।
  • वैश्विक ऊष्मन/जलवायु परिवर्तन।
  • विदेशी सब्जियों की खेती की शुरूआत।
  • प्राकृतिक चरागाह भूमियों का विनाश।
  • किसानों तथा जन-सामान्य में मधुमक्खियों सहित अन्य परागकों द्वारा निभाई जाने वाली उल्लेखनीय भूमिका के प्रति जागरूकता की कमी।
  • प्राकृतिक आपदाएं तथा समय-समय पर वनों में आग लगना।
  • प्रवर्धनात्मक नीतियों की कमी

कीट परागकों व मधुमक्खी विविधता के संरक्षण व प्रबंध के लिए कार्यनीतियां

हरियाणा राज्य में तथा राष्ट्रीय स्तर पर मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों के संरक्षण व प्रबंध के लिए निम्नलिखित कार्यनीतियां अपनाई जा सकती हैं।

मधुमक्खी छत्तों के स्थलों का प्रबंध

  • खेतों में या आस-पास के खेतों में खड़े मृत वृक्षों और उनकी शाखाओं को बिना छेड़े छोड़ देना ताकि उनके कोटरों में मधुमक्खियों के छत्ते बने रहे सकें।
  • ऐसे स्थलों का संरक्षण जहां वन्य मधुमक्खियां छत्ते बना सकती हैं जैसे खाली जमीनों के टुकड़े (सड़कों/ पथों के किनारे व फसल क्षेत्रों के आस-पास), बांस के तने, संरचनात्मक इमारती लकड़ी आदि।
  • वन्य परागकों के भूमिगत आवासों या छत्तों के संरक्षण के लिए भराव सिंचाई से बचना।

परागकों के लिए भ्रमण क्षेत्र

  • परागकों की भ्रमण अवधि को बढ़ाने के लिए मिश्रित फसलन ।
  • ऐसी फसल किस्मो की खेती जिनमें अलग-अलग समयों पर फूल आते हों ताकि वन्य परागकों के लिए परागण के स्रोतों की कमी की अवधि कम की जा सके या समाप्त की जा सके।
  • भूदृश्य निर्माण के पैमाने पर बहुवर्षीय चरागाहों, पुराने खेतों, झाड़ीदार भूमियों तथा पवन द्वारा परागित होने वाले पौधों से युक्त वन वन्य मधुमक्खियों के लिए पराग का स्रोत उपलब्ध कराते हैं।
  • परागण के लिए श्रेष्ठ खरपतवारों के संरक्षण हेतु खरपतवारों की चयनशील निराई-गुड़ाई
  • वन्य परागकों को प्रोत्साहित करने के लिए वानस्पतिक विविधता संरक्षित की जानी चाहिए और उसे बनाए रखना चाहिए।

रसायनों के आवश्यकता से अधिक उपयोग में कमी लाना

  • व्यापक उपयोग वाले अर्थात् ब्रॉड स्पैक्ट्रम नाशकजीवनाशियों के उपयोग से बचना चाहिए क्योंकि ये चयनशील नाशकजीवनाशियों की तुलना में परागकों के लिए अधिक हानिकारक हैं।
  • जब फसल की पुष्पन अवधि हो तब नाशकजीवनाशियों के उपयोग से बचना चाहिए।
  • रासायनिक नाशकजीवनाशियों के उपयोग को निरुत्साहित किया जाना चाहिए तथा जैव नाशकजीवनाशियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • रासायनिक उर्वरकों का कम उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि भूमि पर बने छत्तों को कोई व्यवधान न हो।

परागकों का प्रबंध

  • मधुमक्खियों, कारपेंटर मक्खियों, बम्बल मक्खियों जैसे परागकों का प्रबंध।
  • मधुमक्खियों सहित कीट परागकों को बड़े पैमाने पर पालने के लिए तकनीकों का विकास।
  • परंपरागत मधुमक्खी पालन में विविधीकरण ।
  • यूरोपीय मधुमक्खियों की कालोनी को खेतों में तब रखना जब फसल पुष्पन अवस्था में हो।
  • रखी जानी चाहिए क्लोनियों  की संख्या खेत में उगने वाली फसल के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती है।
  • मधुमक्खी क्लोनियों  को बागों/खेतों में तब रखा जाना चाहिए जब फसल में 10 से 15 प्रतिशत पुष्पन हो चुका हो, ताकि मधुमक्खियां विशेष फूलों पर मंडरा सकें तथा बागों के आस-पास वैकल्पिक पुष्प वनस्पतियों की उपेक्षा कर दें।

हरित लेखाकरण

  • राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर (हरियाणा) में नीति-निर्माताओं की सहायता के लिए परागण सेवाओं के महत्व को पहचानकर उन्हें उचित निर्णय लेने की दिशा में प्रेरित करना है, ताकि पारिस्थितिक सेवाओं जैसे जलसंभर व गैर-इमारती लकड़ी वाले वनों को प्रणाली में शामिल करने को बढ़ावा दिया जा सके जिसमें परागण सेवाएं भी शामिल हैं। ऐसा राष्ट्रीय/राज्य लेखाकरण विधियों में किया जाना चाहिए। इसके पश्चात् इन सेवाओं का राष्ट्रीय सम्पदा के रूप में महत्व समझते हुए इन्हें दृष्टव्य आर्थिक मूल्य प्रदान किया जाना चाहिए, उदाहरण के लिए इनका भी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान माना जाना चाहिए।
  • 'अधिक हरित' राष्ट्रीय लेखाकरण विधियों के विकास से हमारे ढांचे में पर्यावरणीय समस्याओं को शामिल करने में सहायता मिलती है तथा इसे मुख्य आर्थिक मंत्रालयों, शासी निकायों तथा राज्यों के प्रमुखों को समझना चाहिए।
  • पारिस्थितिक प्रणाली सेवाओं को यदा-कदा ही स्प्रेडशीट या आर्थिक समीकरणों तथा मॉडल के रूप में लेखाकरण करते हुए शामिल किया जाता है। ऐसी नीतियां जिनसे प्राकृतिक संसाधन आधार सुरक्षित रहे या 'निःशुल्क पारिस्थितिक प्रणाली सेवाओं को प्रोत्साहन मिले, जैसे फसलों का देसी मधुमक्खियों द्वारा परागण, उन्हें देश को सम्पत्तिवान बनाने का साधन माना जाना चाहिए।
  • यदि परागण सेवाओं को हरित लेखाकरण में शामिल किया जाता है तो इन्हें प्राकृतिक संसाधनों की सम्पत्ति लेखे विकसित करने के लिए कार्य विधि का सबसे पहला घटक माना जाना चाहिए। इसके लिए दिए गए वर्ष के आरंभ में प्राकृतिक संसाधनों के 'आरंभिक स्टॉक तथा वर्ष के अंत में अंतिम स्टॉक' के रूप में मापने की आवश्यकता होती है। यदि परागण को स्वयं ही ऐसे 'राष्ट्रीय स्टॉक टेकिंग' में शामिल न किया जा सके तो इसे वन्य भूमियों तथा वन स्टॉक' में 'वर्धित मूल्य' के रूप में कार्बन प्राच्छादन व मृदा उर्वरता जैसे अन्य मानों के साथ शामिल किया जाना चाहिए।

अन्य उपयुक्त उपाय

निम्न परीक्षणों से हरियाणा राज्य में मधुमक्खियों सहित अन्य परागकों की संख्या में आने वाली गिरावट को रोकने में सहायता मिल सकती है  -

  • परागकों, उनके पोषक पौधों, जैवभूगोल, आवास संबंधी आवश्यकताओं आदि पर डेटाबेस को अद्यतन करना।
  • उन्नत स्थानीय वर्गीकरणविज्ञानी सूचना तथा क्षमताएं।
  • परागकों के संबंध में देसी ज्ञान तथा उनकी प्रबंध विधियों पर अध्ययन।
  • परागकों के लिए अनुकूल प्रबंध विधियों को अपनाना।
  • विभिन्न परागकों की परागण दक्षता पर अध्ययन ।
  • विभिन्न फसलों की परागण संबंधी आवश्यकताओं पर अध्ययन।
  • परागकों को टिकाऊ रूप से प्रबंधित करने के लिए किसानों की क्षमता का उन्नयन।
  • व्यापक श्रेणी के हितधारकों (किसानों के अतिरिक्त) के द्वारा परागकों के संरक्षण, टिकाऊ उपयोग व प्रबंध की क्षमता में वृद्धि ।
  • नीति निर्माताओं को परागकों के आर्थिक व सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराना ताकि पारिस्थितिक प्रणाली दृष्टिकोण के साथ परागकों के संरक्षण व प्रबंध के लिए अनुकूल वातावरण तैयार हो सके।
  • परागण संबंधी मुद्दों का क्षेत्रीय नीतियों जिनमें कृषि व पर्यावरण भी शामिल हैं, में समेकन करना और उसे बढ़ाना ।
  • प्रबंध की ऐसी विधियों के बारे में उन्नत समझ जो परागकों की विविधता के संरक्षण, उसे बनाए रखने में अपना योगदान देती हैं।
  • परागकों के परिस्थिति विज्ञानी एवं आर्थिक मानों व परागकों की संख्या में आने वाली कमी के कारणों तथा परागण सेवाओं पर इसके आर्थिक प्रभाव को ज्यादा से ज्यादा समझना व इसके प्रति जागरूकता लाना।
  • परागण सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन।
  • देसी परागकों के संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां बनाना।
  • मधुमक्खियों के संरक्षण में गैर-सरकारी संगठनों व अन्य स्वयं सेवियों को शामिल करना।
  • परागण मित्र प्रबंध विधियों का उपयोग आरंभ होने से किसानों की आजीविका प्रभावित हो सकती है तथा इससे उनका बहुत कल्याण हो सकता है। इनके बारे में अवगत होना और यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये ऐसे प्रभावों से संबंधित हैं जिनके अधिक स्पष्ट वित्तीय व संसाधन परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं। इन प्रभावों से किसानों के परागक-मित्र विधियां अपनाने के बारे में निर्णय लेने पर प्रभाव पड़ सकता है।

मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

जलवायु परिवर्तन मधुमक्खियों की संख्या में आने वाली कमी का मुख्य कारण हो सकता है। जिससे अनेक कृषि क्षेत्रों में फसल परागण प्रभावित हो रहा है। यह अनेक कारकों का परिणाम हो सकता है लेकिन ऐतिहासिक रिकॉर्ड यह प्रदर्शित करते हैं कि मौसम की बदलती हुई दशाओं के कारण प्रत्येक सात से आठ वर्ष के बाद मधुमक्खियों के छत्तों में उतार-चढ़ाव आते हैं और अंततः इसका परिणाम फसलों की उपज पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से परागकों का वितरण भी प्रभावित होता है और साथ ही जिन पौधों को वे परागित करते हैं उनके साथ-साथ पुष्पन के समय और प्रवासन का भी परागकों की संख्या पर विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के साथ परागकों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उपयुक्त आवासों में भी परिवर्तन हो सकता है। और इस प्रक्रिया में उनके कुछ क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं लेकिन कुछ नए क्षेत्र सृजित भी हो सकते हैं। जब आवास गायब हो जाता है या परागक किसी नए आवास में नहीं जा पाता है तो स्थानीय विलुप्तता उत्पन्न हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से पौधों की पुष्पन अवधि तथा मधुमक्खियों सहित परागकों की गतिविधि के मौसम में समकालिकता में भी व्यवधान आ सकता है।

फसल उत्पादन पर परागकों की घटती हुई संख्या व जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

ऐसा देखा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण परागकों तथा मधुमक्खियों की संख्या में कमी आ रही है जिससे कृषि उत्पादन, कृषि पारिस्थितिक प्रणाली की विविधता एवं जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया है। अनेक परागकों की जनसंख्या का घनत्व उस निश्चित स्तर से काफी कम हो गया है जिस पर वे कृषि पारिस्थितिक प्रणालियों में परागण सेवाओं को बनाए नहीं रख सकते हैं। अतः वन्य पौधों की जनन क्षमता को बनाए रखने के लिए अनुकूल प्राकृतिक पारिस्थितिक प्रणालियों की आवश्यकता है। परागकों की घटती हुई संख्या के पारिस्थितिक संकटों में अनिवार्य पारिस्थितिक प्रणाली सेवाएं (विशेष रूप से कृषि पारिस्थितिक प्रणाली सेवाएं) व परागकों द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले कार्य भी शामिल हैं। पारिस्थितिक प्रणाली सेवाओं का न केवल जैव-भौतिक मूल्य है बल्कि आर्थिक मूल्य भी है। उदाहरण के लिए सम्पूर्ण जैव मंडल के लिए पारिस्थितिक सेवाओं का मूल्य (इसमें से अधिकांश बाजार के बाहर है) अनुमानतः प्रति वर्ष 16-54 ट्रिलियन अमेरिकी डालर है। जिसका औसत प्रति वर्ष 33 ट्रिलियन अमेरिकी डालर आता है। प्रमुख परागकों में से परागकों के वार्षिक वैश्विक योगदान का मूल्य, इस पर निर्भर फसल के अनुसार है जो 54 बिलियन अमेरिकी डालर से अधिक है। कनाडा के समतुल्य मूल्य पर एल्फाएल्फा बीज उद्योग के लिए परागकों का मूल्य प्रति वर्ष लगभग 6 मिलियन सीएडी आंका गया है।

एशिया में किए गए अन्वेषणात्मक अध्ययनों से प्राकृतिक कीटों की संख्या में आने वाली कमी और फसलों की उपज में कमी के बीच संबंध प्रदर्शित हुआ है जिसके परिणामस्वरूप लोगों ने फसलों से संबंधित जैवविविधता (अर्थात् परागकों/मधुमक्खियों) का प्रबंध करना आंरभ कर दिया है। ताकि उनकी फसलों की उपज व गुणवत्ता बरकरार रहे। उदाहरण के लिए उत्तर भारत के एक राज्य हिमाचल प्रदेश में किसान मधुमक्खियों का उपयोग अपनी सेब की फसल के परागण के लिए कर रहे हैं। परागक की घटती हुई संख्या तथा खेती की परिवर्तित होती हुई विधियों के कारण विश्वभर में अधिक से अधिक किसान अब परागण सेवाओं के लिए धनराशि का भुगतान कर रहे हैं तथा फसल उत्पादन सुनिश्चित करने अर्थात् प्रबंधित फसल परागण के लिए अपने देश से बाहर के परागकों का आयात करके उन्हें पाल रहे हैं। तथापि, अनेक विकासशील देशों में बाह्य परागण सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं तथा समुदायों को खाद्य पदार्थों की घटती जा रही मात्रा, गुणवत्ता व विविधता के साथ अपना जीवन निर्वाह करना पड़ रहा है। पश्चिम चीन में फल के बागों में उपयोगी कीटों की संख्या में कमी के परिणमास्वरूप किसानों को हाथ से परागण करना पड़ रहा है और इस प्रकार, मनुष्य ही मधुमक्खियों का कार्य कर रहे हैं। पारिस्थितिक प्रणाली की कार्य पद्धति व अर्थव्यवस्था पर परागकों की संख्या में आने वाली कमी के प्रभावों को सामान्य रूप से पहचानने के बावजूद भी टिकाऊ कृषि के लिए परागकों के संरक्षण व प्रबंध में अब अनेक बाधाएं व रुकावटें आ रही हैं। इस प्रकार हरियाणा राज्य में अब यही उचित समय है जब प्रबंधित परागण विधियों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए।

मधुमक्खियों से संबंधित वनस्पतियां

हरियाणा राज्य में लगभग 250 ऐसी पादप प्रजातियों की पहचान की गई है जिनसे मधुमक्खियां अपनी वृद्धि तथा विकास के लिए पुष्प रस व पराग एकत्र करती हैं। मधुमक्खियों के लिए अनुकूल कुल वनस्पतियों में से 29 प्रजातियां पुष्प रस का, 21 प्रजातियां पराग का तथा 200 प्रजातियां पराग और पुष्प रस, दोनों का स्रोत हैं। मधुमक्खी वनस्पति जगत की सापेक्ष उपयोगिता के अनुसार इन पादप प्रजातियों को 4 श्रेणियों में समूहीकृत किया गया है। प्रमुख श्रेणी में की गई 9 पादप प्रजातियां पुष्प रस, पराग या दोनों का अत्यंत समृद्ध स्रोत हैं। इनका क्षेत्र राज्य में काफी अधिक है। इनमें से सरसों, सफेदा, बरसीम, सूरजमुखी, बाजरा, कपास, अरहर, बबूल और नीम इसके प्रमुख स्रोत हैं। बीस पादप प्रजातियां जो मध्यम उपयोग वाली मधुमक्खी वनस्पतियां हैं वे पुष्प रस और पराग अथवा दोनों का समृद्ध स्रोत हैं और यह राज्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन स्रोतों का उपयोग मुख्यतः वर्षभर क्लोनियों  की शक्ति बनाए रखने के लिए किया जाता है। गौण तथा कम उपयोगिता की श्रेणी वाले मधुमक्खी वनस्पति जगत में क्रमशः 45 और 95 पादप प्रजातियां शामिल हैं। ये पादप प्रजातियां या तो पुष्प रस और पराग का घटिया/अत्यंत घटिया स्रोत हैं या इनकी गहनता अत्यंत दुर्लभ है। ये स्रोत मधुमक्खियों के लिए अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण हैं और इन्हें केवल वैकल्पिक खाद स्रोतों के रूप में ही उपयोग में लाया जा सकता है।

मधुमक्खियों के लिए उपयोगी वनस्पतियों का प्रवर्धन

निर्वनीकरण तथा गहन खेती के लिए कचरे की सफाई के कारण मधुमक्खियों के लिए उपयोगी वनस्पतियों में कमी भारतीय मधुमक्खी पालन के लिए एक गंभीर आघात है। वनीकरण के माध्यम से मधुमक्खियों के लिए उपयोगी वनस्पतियों का प्रवर्धन व बड़े पैमाने पर रोपण सैद्धांतिक रूप से किया जाना चाहिए जिसके अनेक लाभदायक उपयोग हैं। चूंकि व्यवहारिक रूप से केवल मधुमक्खियों के लिए परागण के अनुकूल पौधों का रोपण करना संभव नहीं है अतः बड़े पैमाने पर ऐसा प्रवर्धन किया जाना चाहिए। यह रोपण उच्च मार्गों के किनारे, रेलवे लाइनों के साथ-साथ बंजर भूमियों पर किसी केन्द्रीय विकास एजेंसी की सहायता से किया जा सकता है। सामाजिक वानिकी तथा कृषि वानिकी योजनाओं के अंतर्गत लोगों को मधुमक्खियों के लिए अनुकूल वनस्पतियां रोपने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

स्रोत:

हरियाणा किसान आयोग, हरियाणा सरकार

अंतिम बार संशोधित : 12/19/2023



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