অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

मृदा जलमग्नता–समस्या एवं समाधान

परिचय

अवश्य ही मृदा जल स्तर की पौध वृद्धि एवं मृदा गुणों को संतुलित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है किन्तु यई मृदा जल यदि आवश्यकता से अधिक या कम हो जाए तो मृदा गुणों के साथ-साथ- पौध वृद्धि को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है| ऐसी मृदा जिसमें वर्ष में लंबे समयावधि तक जलक्रांत की दशा हो और उसमें लगातार वायु संचार में कमी बनी रहे तो उसे मृदा जल मग्नता कहते हैं| मृदा की इस दशा के कारण भौतिक रासायनिक एवं जैव गुणों में अभूतपूर्व परिवर्तन हो जाता है| फलस्वरूप ऐसी मृदा में फसलोत्पादन लगभग असंभव हो जाता है|  इस परिस्थिति में जल निकास की उचित व्यवस्था द्वारा मृदा गुणों को पौध की आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके फसल उत्पादन संभव किया जा सकता है| आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों में हानि के अलावा लगभग  सभी प्रकार के पौधों की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार के लिए अधिकतम 75% तक ही मृदा रन्ध पानी से तृप्त होते हैं और 25% रंध्र हवा के आदान प्रदान के लिए आवश्यक होते हैं| जिसके कारण जड़ श्वसन क्रिया से कार्बनऑक्साइड का निष्कासन और वायुमंडल से ऑक्सीजन का प्रवेश संभव हो पाटा है जो पौधों की जड़ों को घुटन से बचाता है| मृदा सतह का तालनुमा होना, भूमिगत जल स्टार के ऊपर होना, वर्षा जल का अंत स्वयंदन कम होना, चिकनी मिट्टी के साथ-साथ मृदा तह में चट्टान या चिकनी मिट्टी की परत क होना एवं मृदा क्षारीयता इत्यादि परिस्थितियां जल मग्नता को प्रोत्साहित करती है|

मृदा जल मग्नता के प्रकार

  1. नदियों में बाढ़ द्वारा जल मग्नता वर्षा ऋतु में अधिक  बरसात के कारण नही के आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति बनने के कारण मृदा जल मग्नता हो जाती है|
  2. समुद्री बाढ़ द्वारा जलमग्नता: समुद्र का पानी आसपास के क्षेत्रों में फैल जाता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बना रहता है|
  3. सामयिक जल मग्नता: बरसात के दिनों में प्रवाहित वर्षा जल गड्ढा या तालनुमा सतह पर एकत्रित होकर मृदा जल मग्नता को प्रोत्साहित करता है|
  4. शाश्वत जल मग्नता: अगाध जल, दलहन तथा नहर के पास की जमीन यहाँ लगातार जल प्रभावित होता रहता है शाश्वत जल मग्नता का कारण बनता है|
  5. भूमिगत जल मग्नता: बरसार के समय में उत्पन्न भूमिगत जल मग्नता इस प्रकार के जलमग्नता का कारण बनता है|

मृदा जलमग्नता को प्रोत्साहित करनेवाले कारक

  1. जलवायु: अधिक वर्षा के कारण पानी का उचित निकास नहीं होने से सतह पर वर्षा जल एकत्रित हो जाता है|
  2. बाढ़: सामान्य रूप में बाढ़ का पानी खेतों में जमा होकर जल मग्नता की स्थिति पैदा कर देता है|
  3. नहरों से जल रिसाव: नहर के आसपास के क्षेत्र लगातार जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति में सदैव बने रहते हैं|
  4. भूमि आकार: तश्तरी या तालनुमा भूमि आकार होने के कारण अन्यंत्र उच्च क्षेत्रों से प्रवाहित जल इकट्ठा होता रहता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बनता है|
  5. अनियंत्रित एवं अनावश्यक सिंचाई: आवश्कता से अधिक सिंचाई मृदा सतह पर जल जमाव को प्रोत्साहित करता है जो जल मग्नता का कारण बनता है|
  6. जल निकास: उचित निकास की कमी या व्यवस्था न होने से क्षेत्र विशेष में जल मग्नता हो जाती है|

मृदा जल मग्नता का प्रभाव

  1. जल की गहराई: निचले क्षेत्र जहाँ सामान्यतः बाढ़ की स्थिति बन जाने के कारण लगभग 50 सेंटीमीटर तक पानी खड़ा हो जाता है जो पौधों की वृद्धि एवं पैदावार पर हासित क्षमता  में कमी के कारण प्रतिकूल प्रभाव डालता है| इस स्थिति में पोषक तत्वों की भी कमी हो जाती है|
  2. वायु संचार में कमी: मृदा जल मग्नता के कारण मिट्टी के रंध्रों में उपस्थित हवा बाहर निकल जाती है और सम्पूर्ण रन्ध्र जल तृप्त हो जाते हैं और साथ ही वायुमंडल से हवा का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है| इस परिस्थति में मृदा के अंदर वायु संचार में भारी कमी आ जाती है|
  3. मृदा गठन: पानी के लगातार गतिहीन दशा में रहने के कर्ण मृदा गठन पूर्णतया नष्ट हो जाता है और फलस्वरूप मिट्टी का घनत्व बढ़ जाता है जिससे मिट्टी सख्त/ठोस हो जाती है|
  4. मृदा तापमान: मृदा जल मग्नता मृदा ताप को कम करने में सहायक होती है| नम मिट्टी की गुप्त ऊष्मा शुष्क मिट्टी की तुलना में ज्यादा होती है जो जीवाणुओं की क्रियाशीलता और पोषक तत्वों की उपलब्धता को प्रभावित करती है|
  5. मृदा पी.एच. मान: जल मग्नता की दशा में अम्लीय मिट्टी का पी.एच. मान बढ़ जाता है और क्षारीय मिट्टी पी.एच. मान घट कर सामान्य स्तर पर आ जाता है|
  6. पोषक तत्वों की उपलब्धता: सामान्यतः जल मग्नता की दशा में उपलब्ध पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, गंधक तथा जिंक इत्यादि की कमी हो जाती है| इसके विपरीत लोहा एंव मैगनीज की अधिकता के कारण इनकी विषाक्ता के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं|
  7. पौधों पर प्रभाव: मृदा जल मग्नता में वायुसंचार की कमी के कर्ण धान के अलावा कोई भी फसल जीवित नही रह पाती है| ज्ञात है कि धान जैसी फसलें अपने ऑक्सीजन की पूर्ति हवा से तनों के माध्यम से करते हैं| कुछ पौधे तने के ऊपर गुब्बारानुमा संरचना का निर्माण करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर इसमें उपलब्ध वायु का प्रयोग करते हैं| ऐसी परिस्थिति में कुछ जहरीले पदार्थो जैसे हाड्रोजन सल्फाइड, ब्युटारिक एसिड तथा कार्बोहाइड्रेट के अपघटन य सड़न के कारण उत्पन्न शीघ्रवाष्पशील वसा अम्ल इत्यादि का निर्माण होता जो पौधों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं| जल मग्नता का पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव होने के कारण प्रमुख लक्षण तुरंत परिलक्षित होते हैं जो निम्नलिखित हैं:

पत्तों का कुम्हलाना, किनारे से पत्तों का नीचे की ओर मुड़ना तथा झड़ जाना, तनों के वृद्धि दर में कमी, पत्तों के झड़ने की तयारी , पत्तों का पीला होना, द्वितीयक जड़ों का निर्माण, जड़ों की वृद्धि में कमी, मुलरोम तथा छोटी जड़ों की मृत्यु तथा पैदावार में भारी कमी इत्यादि|

जल मग्न मृदा का प्रबन्ध

 

  1. भूमि का समतलीकरण: भूमि की सतह के समतल  होने से अतिरिक्त पानी का जमाव नहीं होता और प्राकृतिक जल निकास शीघ्र हो जाता है|
  2. नियंत्रित सिंचाई: अनियंत्रित सिंचाई के कारण जल मग्नता  की स्थिति पैदा हो जाती है| अतः ऐसी परिस्थिति में नियंत्रित सिंचाई प्रदान करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है|
  3. नहरों के जल रिसाव को रोकना: नहर द्वारा सिंचित क्षेत्रों में जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति बनी रहती है अतः नहरों तथा नालियों द्वारा होने वाले जल रिसाव को रोक कर से इस समस्या को कम किया जा सकता है|
  4. बाढ़ की रोकथाम: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांशतया खेती योग्य भूमि जल मग्न हो जाती है और फसल का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है अतः इन क्षेत्रों में नदी के किनारों पर बाँध बनाकर जल प्रवाह को नियंत्रित किया जा सकता है|
  5. अधिक जल मांग वाले वृक्षों का रोपण: वृक्षों की बहुत सी प्रजातियाँ अपनी उचित वृद्धि को लगातार बनाए रखने के लिए अधिक जलापूर्ति की मांग करते हैं| इन पौधों में विशेष रूप से सैलिक्स, मूँज घास, सदाबहार (आक), पॉपलर, शीशम, सफेदा तथा बबूल इत्यादि प्रजातियाँ ऐसी हैं जो अधिक वर्षोत्सर्जन क्रिया के कारण अत्यधिक जल का प्रयोग करके भूमिगत जल स्तर को घटाने में सहायक होते हैं| अतः इस प्रकार के पौधों का भू-जल मग्नता की दशा में रोपण करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है|
  6. उपयुक्त फसल तथा प्रजातियों का चुनाव: बहुत सी ऐसी फसलें जैसे धान, जुट, बरसीम, सिंघाड़ा, कमल, ढैंचा एवं काष्ठ फल इत्यादि मृदा जल मग्नता की दशा को कुछ सीमा तक सहन कर सकते हैं| अतः इन फसलों की सहनशक्ति के अनुसार चयन करके इन्हें सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है|
  7. जल निकास: भू-क्षेत्र में अतिरिक्त सतही या भूमिगत जल जमाव को प्राकृतिक या कृतिम विधियों द्वारा बाहर निकालने की प्रक्रिया को जल निकास कहते हैं| जल निकास का मुख्य उद्देश्य मिट्टी में उचित वायु संचार के लिए ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना है जिससे पौधों की जड़ों को ऑक्सीजन की उचित मात्रा प्राप्त होती रहे| उचित जल निकास के लाभ उल्लेखनीय हैं:
  8. सामान्यतया नम मिट्टी में क्ले (चिकनी मिट्टी) तथा जैव पदार्थों की मात्रा अधिक होने के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी अधिक होती है| जल निकास के फलस्वरूप इस प्रकार के भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है|
  9. जल निकास द्वारा मृदा ताप में जल्दी परिवर्तन हो जाने से पोषक तत्वों की उपलब्धता, जीवाणुओं की क्रियाशीलता एवं पौधों की वृद्धि अधिक हो जाती है|
  10. जल निकास के कारण सम्पूर्ण क्षेत्र विशेष का एक जैसा हो जाने के कारण जुताई, गुड़ाई, पौध रोपण, बुआई अन्य कृषि क्रियाएँ, कटाई एवं सिंचाई स्तर में सुविधापूर्ण समानता आ जाती है| यांत्रिक कृषि कार्य में ट्रैक्टर इत्यादि का इस्तेमाल भी सुविधाजनक हो जाता है|
  11. वायु संचार में वृद्धि होने से जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और जैव पदार्थों का विघटन आसान हो जाने के कारण उपलब्ध पोषक तत्वों की उपयोग क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है|
  12. उचित जल निकास द्वारा नाइट्रोजन ह्रास को कम करने में आशातीत सफलता मिलती है| ज्ञात है कि मृदा में वायु अवरुद्धता के कारण नाइट्रोजन का जीवाणुओं द्वारा विघटन होकर नाइट्रोजन गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो अन्तोतगत्वा हवा में समाहित हो जाता है|
  13. जल मग्नता के कारण कुछ विषाक्त पदार्थों जैसे घुलनशीलता लवण, इथाइलीन गैस, मीथेन गैस,  ब्यूटाइरिक अम्ल, सल्फाइडस, फेरस आउन तथा मैंग्नस आयन इत्यादि का निर्माण होता है जो मिट्टी में इकट्ठा होकर पौधों के लिए विषाक्तता पैदा करता है| अतः उचित जल निकास से वायु संचार बढ़ जाता है और फलस्वरूप इस तरह की विषाक्तता  में कमी आ जाती है|
  14. उचित जल निकास वाली भूमि प्रत्येक प्रकार की फसलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है जबकि गीली या नम मिट्टी में सीमित फसलें जो नम जड़ों को सहन कर सकती हैं, की ही खेती की जा सकती है| ज्ञात है कि मात्र थोड़े समय की घुटन से ही बहुत सी फसलों की पौध मर जाती है|
  15. उचित जल निकास पौध जड़ों को अधिक गहराई तल प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है| ऐसा होने से पौधों का पोषण क्षेत्र बढ़ जाने के कारण फसल की वृद्धि पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है|
  16. जल निकास होने से मृदा में अन्तःस्वयंदन बढ़ जाने के कारण जल प्रवाह में कमी आ जाती है फलस्वरूप मृदा कटाव कम हो जाता है|अतिरिक्त जल रहित भूमि मकान तथा सड़क को स्थिरता प्रदान करती है|
  17. अतिरिक्त जल रहित भूमि में घरों से मल निष्कासन तथा स्वच्छता प्रदान इत्यादि की समस्या कम हो जाती है|
  18. उचित जल निकास से मच्छरों तथा बिमारी फैलाने वाले कीड़ों-मकोड़ों इत्यादि  की समस्या कम जो जाती है|
  19. अतिरिक्त जल रहित भूमि का व्यवसायिक मूल्य अधिक होता है|
  20. क्षारीय मृदा सुधार के लिए उचित जल निकास आवश्यक होता है|

 

जल निकास के हानिकारक परिणाम

उचित जल निकास का प्रावधान बनाने से पूर्व भूमि सतह पर वर्तमान विभिन्न प्रकार की जल मग्नता का वर्गीकरण आवश्यक होता है और उसमें आर्द्र भूमि तथा नम मिट्टी के मध्य एक स्पष्ट भेद रेखा का होना और भी अधिक आवश्यक होता है| आर्द्र भूमि का जल निकास करके उसमें उच्चतर भूमि वाली आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण फसलों की ही खेती की जा सकती है अन्यथा इसका प्रयोग पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों पशु-पक्षी के प्राकृतिक निवास के लिए करना चाहिए|  जब नम मिट्टी की जल निकास करके उसमें लगभग सभी प्रकार की फसलों को उगाकर पैदावार में वृद्धि की जा सकती है| बहुत सी नम मिट्टी ऐसी है जिनका जल निकास नहीं करना चाहिये जैसे:

  1. पर्यावरण की दृष्टि से उपलब्ध जलीय जीव, इनके द्वारा आय तथा उगाये जाने वाली फसल की आय में अंतर, उपलब्ध सामाजिक अधिकार एवं पर्यावरण में इनका योगदान इत्यादि जो फसल उगाने की अनुमति नहीं देते हैं|
  2. आसपास के क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर जिसके कारण नाला, कुआँ, तालाब, झरना एवं बावड़ी इत्यादि में लगातार जल प्रवाह होता रहता है|
  3. रेतीली मिट्टी का जल निकास कनरे से भूमिगत जल स्तर में कमी आ जाती है और फसल उगाना नामुमकिन हो जाता है|
  4. नम मिट्टी जिसमें लोहा तथा गंधक युक्त खनिज की मात्रा ज्यादा होती है, उसका जल निकास करने से पी.एच, मान बहुत कम हो जाता है जो फसल उगाने के लिए उपयुक्त नहीं होता है|
  5. जल निकास करने से मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों का ह्रास हो जाता है जिससे मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है| अतः निम्न उर्वरता स्तर पर फसल की पैदावार, उसमें प्रयोग किये गए उर्वरकों की मात्र एवं उपलब्धता, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टिकोण से  महत्वपूर्ण इत्यादि का आंकलन आवश्यक हो जाता है|

जल निकास प्रणाली

  1. सतही जल निकास: सतही जल निकास तकनीक के अंतर्गत खुली नालियों का निर्माण किया जाता है जिसमें अतिरिक्त जल इकट्ठा होकर क्षेत्र विशेष से बाहर निकल जाता है और साथ ही भूमि सतह को समतल करते हुए पर्याप्त ढलान दिया जाता है जिससे जल प्रवाह आसानी से हो सके| इस तकनीक का प्रयोग सभी प्रकार की मिट्टी में किया जा सकता है| सामान्य रूप से लगभग समतल, धीमी जल प्रवेश, उथली जमीन या चिकनी मिट्टी थाल के आकार वाली सतह जो उंचाई वाले क्षेत्र का जल प्रवाह इकट्ठा करता है और अतिरिक्त जल निकास की आवश्कता वाली भूमि में इस तकनीक का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है| इस विधि में मुख्यतया खुली नाली/खाई, छोटी-छोटी क्यारी द्वारा जल निकास तथा समतलीकरण इत्यादि विधियों के इस्तेमाल किया जाता है|
  2. अवमृदा/भूमिगत जल निकास: अवमृदा जल निकास के लिए भूमि के अंदर छिद्रयुक्त प्लास्टिक या टाइल द्वारा निर्मित पाईप/नाली को निश्चित ढलान पर दफना दिया जाता है जिसके द्वारा अतिरिक जल का रिसाव होकर नाली के माध्यम से निकास होता रहता है| इस जल निकास तकनीक में आधारभूत निवेश की अत्यधिक मात्रा होने के कारण निवेशक के पूर्व आर्थिक या अर्थव्यवस्था का आकंलन आवश्यक होता है| मृदा संरचना एंव गठन के आधार पर ही जल निकास तकनीक का चयन करना चाहिए| इस विधि में मुख्यतया टाइल निकास, टियूब निकास, सुरंग निकास, गड्ढा एवं पम्प निकास तथा विशेष प्रकार से निर्मित सीधा-खड़ा आधारभूत ढांचा जैसे राहत कुआँ, पम्प कुआँ और उल्टा कुआँ इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है|

स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate