गर्भकालीन विकास में जैविकीय कारकों का महत्व तो है ही, परिवेशीय कारकों के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है।गर्भाधान के क्षण से ही एक सुनिश्चित पृष्ठभूमि के साथ जीवन का प्रारंभ होता है।गर्भकालीन अवस्था में विकास की गति तीव्रगति होती है।इस काल को विकास के तीन प्रमुख चरणों में विभाजित किया जा सकता है।प्रथम चरण को बीजावास्था या जायगोटकी आवधि कहते हैं।इसकी अवधि गर्भाधान काल से दो सप्ताह तक होती है अथार्त शुक्राणु तथा डिंब संयोजन से ब्लैस्टूला के गर्भाशय की दिवार में आरोपित होने तक की अवधि होती है।दूसरा चरण भ्रूणवस्था कहलाता है।यह चरण दुसरे से आठवें (2-8) सप्ताह तक होता है।इस अवधि में शरीर की सारी संरचनाएं पूर्ण हो जाती है।गर्भकालीन अवस्था के विकास का तीसरा व नौवें माह तक (अथार्त शिशु की अवस्था कहलाता है।यह चरण गर्भस्थ शिशु के अवस्था कहलाता है।यह अवधि तीसरे से नौंवे माह तक (अथार्त शिशु के जन्म के पहले तक होती है।इस अवधि में शरीर के आकार एवं त्रैमासिक में विभाजित किया जाता है अंतिम त्रैमासिक के 22-26वें सप्ताह की आयु का गर्भस्थ शिशु माँ के गर्भ से बाहर होने पर भी जीवित रह सकता है।इस अवधि को जीवन क्षमता की आयु कहा जाता है|
तीव्र प्रतिबल की दशा में माता में अधिक मात्र में हारमोंस स्खलित होकर प्लेसेंटा पार करके गर्भस्थ शिशु को क्षति पहुंचा सकते हैं।यद्यपि माँ की आयु एवं परवर्ती गर्भ धारण की संख्या का प्रभाव पड़ना भी बताया जाता है।तथापि अनुसंधानों से प्राप्त परिणाम इस तथ्य की पूर्णत: पुष्टि नहीं करते।अस्तु इन कारकों को गर्भस्थ शिशु के विकास में, समस्यामूलक होना सुनिश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है|
गर्भकालीन विकास में वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती हैं।विकास में सामान्य प्रवृत्तियाँ निहित हैं।अथार्त विकास सिर सर पैर की ओर अग्रसर होता है जिसे निकट-दूर प्रवृत्ति कहा जाता है।इसी प्रकार विकास की अन्य प्रवृत्तियाँ जैसे – “सामान्य से विशिष्ट प्रवृत्ति” तथा “विभेदन से एकीकरण की प्रवृत्ति” भी पायी जाती है|
यद्यपि गर्भकालीन विकास में अनुवांशिक कारकों की अहम् भूमिका होती है तथापि अनेक परिवेशीय कारक इस अवधि में विकास को प्रभावित करते हैं।इन प्रमुख परिवेशीय कारकों की अंतर्गत कुपोषण, टेरेटोजेन्स, विकास की संवेदनशील एवं क्रांतिक अवधि, नशीली दवाएँ, मादक द्रव्य, धूम्रपान का प्रयोग, हारमोंस, विकिरण, प्रदूषण, माँ की आयु, तीव्र सांवेगिक प्रतिबल, आर.एच. कारक एवं माँ की आयु जैसे अनके कारकों का प्रभाव गर्भकाल में गर्भस्थ शिशु के विकास पर पड़ता है|
गर्भाकालीन आवधि शिशु जन्म के साथ ही पूर्ण हो जाती है तथा शिशु जन्म की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।इसके तीन प्रमुख चरण होते हैं तथा प्रारंभ गर्भाशय में आंकुचन से गर्भाशय का निचला भाग खुलने लगता है एवं शिशु जन्मनाल की ओर खिसकना शुरू जाता है।इस चरण को लेबर कहते हैं।स्त्री पीड़ायुक्त आंकुचन को महसूस करती हुई शिशु- जन्म के लिए दबाव बनाती है।इसी समय प्रतिबल हारमोंस ऑक्सीजन वंचना की स्थिति में, अनुकूल प्रदान करते हैं।जिससे जन्म के समय शिशु की सक्रियता बनी रहती है दूसरा चरण जन्म तथा तीसरा जन्मोत्तर चरण कहलाता है।इस चरण में शिशु जन्म के उपरांत प्लेसेंटा बाहर आ जाता है।बड़ा सिर एवं शेष शरीर के छोटे होने के कारण प्राय: नवजात शिशु अच्छा नहीं दिखाई देता है ।परन्तु उसका आकर्षक चेहरा एवं भोली आँखे सबको आकर्षित कर लेती हैं।शिशु की शारीरिक दशाओं के मापन हेतु अपगर मापनी का उपयोग किया जाता है।शिशु जन्म का विविध उपागम है।इनमें से प्रमुख है: घर में जन्म, अस्पताल में जन्म और स्वभाविक अथवा पूर्ण तैयारी के साथ शिशु जन्म।यदि माँ स्वस्थ है, सहायक धाय अथवा परिवार के सदस्य प्रशिक्षित है तो घर में शिशु जन्म उपयुक्त होता है।परंतु जटिल गर्भ सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण हेतु प्रसव पीड़ा निवारक दवाओं की सहायता से एवं अस्पताल में आपरेशन द्वारा सूराक्षित शिशु जन्म कराया जाता है।आजकल स्वभाविक अथवा पूर्ण तैयारी युक्त शिशु जन्म पर बल दिया जा रहा है।इसकी योजनाओं से लाभान्वित माताएं, प्रसव वेदना, के प्रति तनाव रहित होकर स्वभाविक शिशु जन्म, हेतु तत्पर रहती हैं|
शिशु जन्म से जुड़ी समस्याओं में एनाक्सिया एक गंभीर समस्या है।यह शिशु के मस्तिष्क एवं अन्य अंगों को क्षति पहूँचाती है।तथापि वाल्याकाल तक आते-आते इससे प्रभावित बच्चे सामान्य विकास गति प्राप्त कर लेते हैं।दूसरी समस्या है अपरिपक्व शिशु का जन्म।ऐसे शिशु निम्न आर्थिक स्तर या जुड़वे बच्चों के संदर्भ में पाया जाता है।कुछ शिशु गर्भ में पूरे समय तक रहने के बाद भी सामान्य से कम लम्बाई और भारयुक्त होते हैं।इन्हें अल्प विकसित शिशु कहा जाता है।अपरिपक्व बच्चों की तुलना में ऐसे बच्चों के विकसित होने की संभावना अधिक होती है।अत: उचित हस्तक्षेप द्वारा, विशिष्ट उद्दीपन प्रदान करके इन्हें सामान्य विकास के योग्य बनाया जा सकता है।ऐसे शिशूओं की देखरेख हेतु माता –पिता को प्रशिक्षित किया जा सकता है।कूआई अध्ययन दर्शाते है कि किस प्रकार जन्म संबंधी समस्याओं के शिकार शिशूओं को “सहयोगात्मक पारिवारिक परिवेश” द्वारा सामान्य विकास की ओर उन्मुख किया जा सकता है|
स्त्रोत: ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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