सरसों वर्गीय फसलें हमारे देश की तिलहन अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाती है। इन फसलों की बढ़ोतरी का सीधा असर दुर्लभ विदेशी मुद्रा की बचत में होता है। इन फसलों में तोरिया, पीली व भूरी सरसों, गोभी सरसों, कर्ण राय, राया (भारतीय सरसों) व तारामीरा हैं। इन फसलों की खेती लगभग 6.5 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे लगभग उत्पादन 7.96 मिलियन टन होता है। सरसों का तेल स्वास्थय के लिए बहुत लाभदायक होता है। सरसों की खेती अधिकतर वर्ष सिंचित नमी अथवा सीमित सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में की जाती है। इन फसलों की उपज को बढ़ाने तथा उसको टिकाऊ बनाने के मार्ग में एक प्रमुख समस्या नाशीजीवों का प्रकोप है जो कुछ हद तक इन फसलों के अस्थिर उत्पादन के लिए उत्तरदायी है। ये नाशीजीव सरसों में 10 से 96 प्रतिशत तक उपज में हानि पहुंचाते हैं।
यह कीट छोटा, कोमल, सफेद –हरे रंग का होता है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों पौधों के विभिन्न भागों से रस चूसते हैं। यह प्राय: दिसम्बर के अंत से लेकर फरवरी के अंत तक सक्रिय रहता है। इस कीट की आर्थिक हानि की सीमा 10 से 20 माहू (मध्य तना के 10 से. मी. भाग में) इससे उपज में लगभग 25 – 40 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।
इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही सरसों को पौध की अवस्था से लेकर, वनस्पति, फली बनने और पकने अवस्था में रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। बाद में माँड़ाई के लिए रखे सरसों पर भी आक्रमण करते हैं। जिससे दाने सिकुड़ जाते हैं और उत्पादन व तेल की मात्रा में भारी कमी हो सकती है।
यह रोग बड़े पैमाने पर सरसों में लगता है। इसका प्रकोप पत्तियों, टनों, फलियों इत्यादि पर हल्के भूरे रंग के चक्रीय धब्बों के रूप में प्रदर्शित होता है। बाद में ये धब्बे हल्के रंग के बड़े आकार के हो जाते है। इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिस कारण इसकी अंकुरण में कमी तथा बाजार भाव कम मिलता है। गीला व गर्म मौसम या अदल – बदल के वर्षा व धूप तथा तेज हवाएं इस रोग को बढ़ाती हैं।
यह रोग सर्वप्रथम पत्तियों पर आता है। जब तना एवं पुष्पक्रमों में दिखाई पड़ता है। उसमें पुष्पक्रम फूल कर विकृत आकर के हो जाते हैं, जिससे पैदावार में 17 – 34 प्रतिशत तक कमी आती है। यदि हवा के साथ तेज वर्षा होती है तो यह रोग तीव्र गति से फैलता है।
इस रोग में पत्तों व टनों पर लंबे चिपचिपे धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में कवक की वृद्धि से ढक जाते हैं। इस रोग का प्रकोप फूल आने की अवस्था से शुरू होता हैसियत जब मौसम ठंडा व नम होता है, तो इस रोग की उग्रता बढ़ती है। इस रोग से सूखे पौधों के तनों में काले रंग वाले पिंड बन जाते हैं।
प्रारंभ में यह रोग पौधों के तनों, पत्तियों एवं फलों पर श्वेत, गोल आटे जैसे चूर्णित धब्बों के रूप में दिखाई देता है। तापमान की वृद्धि के साथ – साथ ये धब्बे आकार में बड़े हो जाते हैं।
इस के शिशु दुबले एवं इनके वक्षांग एवं पैर अच्छी तरह से विकसित होते हैं। इनके प्रौढ़ चमकीले, पीले, नारंगी या गहरे लाल रंग के होते हैं।
प्रौढ़ कीट के लेसविंग हल्के रंग के 12-20 मि.मी. लम्बे होते हैं। इनके पंख पारदर्शी एवं हरे रंग के होते हैं तथा शरीर कोम होता है।
ट्राइकोडर्मा एक महत्वपूर्ण जैविक नियंत्रक कवक है। इनका समूह (कालोनी) समान्यत: हरे रंग का होता है। ट्राइकोडर्मा कवक सरसों के विभिन्न रोगों जैसे सफेद रोली, एवं स्क्लेरोटीनिया गलन रोग की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है।
सरसों में नाशीजीवों के प्रकोप में बचने एवं इनसे होने वाली हानि को आर्थिक परिसीमा से नीचे रखने हेतु समेकित नाशीजीव प्रबंधन अपनाएं। इसके अंतर्गत फसल की अवस्थानुसार निम्न उपाय करें।
क. ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई – ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें।
ख. पानी की निकासी – बोये जाने वाले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके, पानी की निकासी का उचित प्रबंध करें।
ग. फसल के अवशेषों को नष्ट करना – पूरे की फसल अवशेषों एवं रोग ग्रसित पौधों को एकत्र कर जला दें एवं खेत को साफ- सुथरा रखे।
घ. समुचित फसल चक्र - नाशीजीवों की निरंतरता को समाप्त करने के लिए उपयुक्त फसल चक्र अपनायें।
ङ. सन्तुलित उर्वरक – सरसों में अनुमोदित किये गये सन्तुलित उर्वरकों का प्रयोग करें। फसलों में अधिक मत्रा में नाइट्रोजन का प्रयोग करने से चूषक कीटों (माहू इत्यादि) व बिमारियों का आक्रमण बढ़ जाता है। 15 कि.ग्रा./हैक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट + सल्फर (स्थान विशेष) का मृदा में, अनुप्रयोग करें।
क. उपयुक्त समय पर बिजाई – सरसों का सही समय (01 अक्टूबर से 31 अक्टूबर) के दौरान बुवाई करें।
ख. प्रमाणित बीज – क्षेत्र के लिए स्वीकृत, उन्नत, स्वस्थ रोग रहित प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
ग. भूमि उपचार – भूमि में ट्राइकोडर्मा कवक उत्पाद 2.5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर को 50 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर में मिलाकर, सरसों की बुवाई से पूर्व अवश्य मिलाना चाहिए जिससे बिमारियों का प्रकोप कम होता है।
घ. बीजोपचार – ट्राइकोडर्मा आधारति जैविक उत्पादक द्वारा 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से या ताजा बनाये हुए लहसुन सत से 2 प्रतिशत की दर से बीजोपचार करें।
ङ. उचित दूरी – बीज की सिफारिश से ज्यादा मात्रा का प्रयोग न करे व कतार से कतार की पौधे से पौधे की उचित दूरी बनाये रखें।
रा. स ना. प्र. के द्वारा विकसित सरसों में आर्थिक समीक्षा आई. पी. एम. प्रणाली को फसल वर्ष 2008 -9 से 2009 – 10 तक जिला अलवर, राजस्थान के सिंचित क्षेत्र के किसानों द्वारा सरसों की फसल में 118.5 हेक्टेयर में अपनाने से उनकी उपज 2 वर्षों के औसतानुसार 21.82 क्विंटल प्रति हे. जबकि गैर – आई. पी. एम. किसानों की उपज 18.96 क्विंटल प्रति हे. ही रही एवं शुद्ध लाभ रू. 29908 प्रति हे. रहा जबकि गैर आई. पी. एम. को केवल रू. 24061 प्रति हे. शुद्ध लाभ हुआ।
नाशीजीव सहनशील किस्में |
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नाशीजीव |
सहनशील किस्में |
सफेद रतुआ |
बायो वाई एस आर, जे एम 1 |
स्क्लेरोटीनिया |
पूसा आदित्य किरण, पूसा करिश्मा, आर. एल.एम. 619 |
पूसा सरसों 26 |
स्त्रोत: राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली
अंतिम बार संशोधित : 2/3/2023
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